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- जब टाइम देखने का भी टाइम ना मिले तब समझो कि जिंदगी में कुछ उखाड़ रहे हो..!!
जब टाइम देखने का भी टाइम ना मिले तब समझो कि जिंदगी में कुछ उखाड़ रहे हो..!!
- आए हो निभाने को जब किरदार जमीन पर, कुछ ऐसा कर चलो कि जमाना मिसाल दे..!
आए हो निभाने को जब किरदार जमीन पर, कुछ ऐसा कर चलो कि जमाना मिसाल दे..!
- हार-जीत क्या होता है मुझे नहीं पता जिस बंदे में दम है वो फिर से ज़ीरो से शुरुआत करने की ताकत रखता है।
हार-जीत क्या होता है मुझे नहीं पता जिस बंदे में दम है वो फिर से ज़ीरो से शुरुआत करने की ताकत रखता है।
- लोग आपको सफल होने से ज्यादा असफल होता हुआ देखना चाहते है, इसलिए आपकी जिम्मेदारी बनती है कि आप सफल बने।
लोग आपको सफल होने से ज्यादा असफल होता हुआ देखना चाहते है, इसलिए आपकी जिम्मेदारी बनती है कि आप सफल बने।
- पुरुष सौंदर्य
मेरी एक महिला मित्र द्वारा पुरुष सौंदर्य पर किया गया एक चरितार्थीक व्यंग....!! पुरुषों का सौंदर्य' मैं फिलहाल बात करना चाहती हूँ पुरुषों पर, जिनके सौंदर्य को हमेशा अनदेखा किया गया है। कुछ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो ज़िन्दगी भर अपना काम ईमानदारी से करते हैं, भरपूर प्रेम करते हैं, और नारीवादी भी होते हैं। तथाकथित नारीवादी युग में पुरुषों को सिर्फ दुश्मन मान लिया गया है और उनपर जमकर बरसा जाता है हर बात पर। जिस तरह से सारी महिलाएँ हमदर्दी की पात्र नहीं होती उसी तरह सारे पुरुष कोसने के लिए नहीं हैं। पुरुषों का अपना सौंदर्य है। फिर चाहे वो पिता के रूप में हो, पति के रूप में हो, दोस्त हो, प्रेमी हो, भाई हो या रास्ते से गुज़रता कोई भी पुरुष। वो सिर्फ कमाकर देने वाली मशीन नहीं है। ज़िम्मेदारियों से दबकर खुद को वक़्त से पहले कमर झुकाकर बुजुर्ग की उपाधि पाने की लिए नहीं है। उसे रोना आएगा तो उसे भी रोने दीजिये ये कहकर उसके आंसू मत दबाइए की तुम आदमी हो रोते हुए ज़रा देखो कैसे औरत जैसे लग रहे हो। उसे यह कहकर अकेला मत छोड़िए कि आदमी है खुद सँभल जाएगा। पुरुष भी भावुकता के उसी धरातल पर रहते हैं जहाँ औरत होती है। उन्हें भी उतना ही प्यार चाहिए जितना कि औरत को। अच्छा लगता है जब वो गले लगाते हैं और औरत का सिर सीधा उनके दिल को छूता है। इससे खूबसूरत और क्या होता होगा! प्रेम आप कभी अकेले कर नहीं सकते इसमें तो सदैव ही दो लोगों की ज़रूरत पड़ेगी ही। नारी सौंदर्य पर कितना कुछ कहा गया है लिखा गया है, पुरुषों की अवहेलना की गई है, हो सकता है उन पर भी कहा गया हो! लेकिन जितना कहा जाना चाहिए वो अभी बाकी है। ये एक पुरुष का ही सौन्दर्य है कि उसमे नारी बसती है तभी तो शिव अर्द्धनारीश्वर हैं। रोज़ की बातों में से सहेजकर देखिए आपके पुरुष आपके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। रास्ते पर चलते वक़्त अगर वो आपको साइड में करके ये कहते हैं कि इधर चलो ये गाड़ी वालें देखकर नहीं चलाते और खुद उस खतरे को मोल ले लेते हैं, तब उनकी ख़ूबसूरती झलकती है। किसी दुकान पर अन्य पुरुषों की भीड़ देखकर आपको ये कहकर रोक देते हैं कि तुम रुको मैं ले आता हूँ बहुत भीड़ है, तब अच्छा लगता है ना। और तब कैसा लगता है, जब आपको रोता देखकर वो ये कहते हैं कि... 'अरे रो क्यों रही हो किसी ने कुछ कहा क्या, मुझे बताओ अभी देखता हूँ उसको तो!' फिर कोई ये कह दे, 'शेर सुनो' तब क्या हो! कुछ पुरूष सिर्फ औऱ सिर्फ मोहब्बत के ही काबिल होते हैं। आज भी हकीकत तो ये है कि औरतें उस लिहाज़ से बेहतर हैं कि काम करे ना करे लेकिन पुरुष को कहाँ सहूलियत है कि घर बैठ जाए! कड़वा है लेकिन सच है। आप ढूँढकर देख लीजिए, बहुत कुछ मिल जाएगा जिसके लिए पुरुषों का धन्यवाद किया जा सके......!!
- Real knowledge is to know the extent of one's ignorance meaning in Hindi
Real knowledge is to know the extent of one's ignorance meaning in Hindi "Real knowledge is to know the extent of one’s ignorance" का हिंदी में अर्थ है: "वास्तविक ज्ञान किसी के अज्ञान की सीमा को जानना है।" यह वाक्य इस बात पर जोर देता है कि सच्ची बुद्धिमानी और ज्ञान तब आता है जब हम अपनी अज्ञानता की सीमा को समझते और स्वीकारते हैं। अपनी सीमाओं को पहचानना और यह समझना कि हमें कितना सीखना बाकी है, असली ज्ञान की निशानी है।
- रोक-टोक
सुरक्षा कवच दिव्या और विकास का प्रेमविवाह हुआ था। ज़िंदगी खुशी-खुशी सपनों से सजी हुई प्रतीत होती थी। नई-नई शादी के ये पल बाहर घूमने और मस्ती करने में बहुत ही आनंदपूर्वक व्यतीत हो रहे थे। वैसे भी दोनों अच्छे पद पर एमएनसी में काम करते थे। नई शादी थी घर और ससुराल दोनों अलग शहर में थे। कोई रोक-टोक नहीं थी। सब आराम से चल रहा था। ऐसे करते-करते कब शादी का एक वर्ष बीत गया पता ही नहीं चला।समय के साथ उन दोनों की ज़िंदगी में नए जीवन के आगमन की आहट सुनाई पड़ी। दिव्या और विकास बहुत खुश थे। ऐसे में शुरू के तीन महीने बहुत ही ध्यान रखने के होते हैं। अपने पोता या पोती के आने की प्रतीक्षा में विकास की माताजी गायत्रीजी और पिताजी राघवजी भी बहुत खुश थी। उनको लग रहा था कि कब नन्हे कदम इस दुनिया में आएं और कब वो उसकी तोतली आवाज़ से अपना जी बहलाएं। गायत्रीजी समझती थी कि इस समय एक स्त्री का मन तरह-तरह के व्यंजन खाने को करता है। आज की पीढ़ी वैसे भी इन सब बातों में लापरवाह होती है। उनको लगा कि कुछ समय उन्हें अपने बेटे-बहू के साथ बिताना चाहिए। बस ये सोचकर वो आ गई विकास और दिव्या के पास। शुरू के दिन तो ठीक से निकले पर थोड़े दिन बाद दिव्या को गायत्रीजी का उसकी खाने की आदतों,उसके रहन सहन पर टोकना अपनी दिनचर्या में टांग अड़ाना लगने लगा। गायत्रीजी भी ये बात समझती थी पर उन्हें लगता था किसी तरह से दिव्या के ये शुरू के तीन महीने आराम से निकल जाएं। एक दिन दिव्या के किसी दोस्त के यहां कोई पार्टी थी। गायत्री जी ने उसको थोड़ा देखभाल से खाने पीने की हिदायत दी।दिव्या ये सुनकर पहले ही थोड़ा चिढ़ गई थी,उस पर जब दिव्या ऐसी हालत में ऊंची एड़ी की चप्पल पहनकर जाने लगी तब गायत्रीजी अपने आपको रोक नहीं पाई। उन्होंने दिव्या को आरामदायक चप्पल पहनने के लिए कहा। अब तो दिव्या का पारा चढ़ गया उसने गुस्से में बोला कि मैं बच्ची नहीं हूं,मेरे को अपना ध्यान रखना आता है।जब ड्रेस के साथ ये ही चप्पल मैच कर रही हैं तो मैं यही पहनकर जाऊंगी। वो बड़बड़ाते हुए मोबाइल में देखते हुए बाहर की तरफ जाने लगी।अचानक से बाहर की तरफ जाने वाली सीढ़ी में दिव्या की चप्पल की हील फंस गई वो अपनेआप को संभाल नहीं पाई और गिर गई। वो बेहोश हो गई। ये तो गनीमत थी कि गायत्रीजी उसके पीछे ही आ रही थी। उन्होंने तुरंत उसे सहारा दिया और एक तरफ सुरक्षित लेटा दिया। विकास को फोन किया और एंबुलेंस को फोन करके हॉस्पिटल ले गई।डॉक्टर ने कहा कि चोट ज्यादा नहीं है बच्चा और दिव्या दोनों ठीक हैं पर ऐसी हालत में सतर्कता बहुत जरुरी है।अब दिव्या को भी होश आ गया था। वो बहुत शर्मिंदा थी।उसे समझ आ गया था कि कई बार घर के बड़ों की रोक-टोक टांग अड़ाना नहीं बल्कि प्यार भरी नसीहत होती है जो अपने बच्चों का सुरक्षा कवच होती है।
- Wife ने Husband को msg किया 🤣🤣
Wife ने Husband को msg किया:- ऑफिस से लौटते समय सब्ज़ी लेते आना! और हाँ पड़ोसन ने तुम्हारे लिये hello कहा है! Husband : कौन सी पड़ोसन? Wife: कोई नहीं! मैंने केवल इसलिए msg के अंत मे पड़ोसन का नाम लिखा ताकि मैं sure हो सकूँ कि तुमने मेरा पूरा msg पढ़ा! अब कहानी में मोड़ है! Husband :- लेकिन मैं तो पड़ोसन के साथ ही हूँ! तुम किस पड़ोसन के बारे में बता रहीं थीं? Wife :- कहाँ हो तुम? Husband : सब्ज़ी बाजार के पास Wife :- वहीं रुको, मैं अभी आती हूँ! 10 मिनट में सब्ज़ी बाजार पहुँच कर Wife ने Husband को msg किया, कहाँ हो तुम? Husband :- मैं आफिस में हूँ! अब तुम्हें जो सब्ज़ी ख़रीदनी है, खरीद लो! कहानी में एक और मोड़ आता है Wife : पर मैं तो गुस्से में रिक्शा पकड़कर आ गई और मेरा पर्स भी घर रह गया! सब्जी तो दूर रिक्शा वाले का किराया भी कहा से चुकाऊं? प्लीज़ जरा जल्दी आओ! पति : बेवकूफ पर्स तो लेकर आना चाहिये था ना! ठीक है मैं आ रहा हूं! सब्जी मण्डी पहुंचकर : कहॉ हो? Wife: घर पर ही हूं,अब सब्जी लेकर सीधे घर आ जाओ। नारी से तो नारायण नहीं जीत पाये नर क्या चीज़ है
- बंधन
"शादी से पहले के विनोद और अब के विनोद मे कितना फर्क है...... कहां तो वो मेरी हर अदा पर शायरी करते नही थकते थे... और अब हफ़्तो बीत जाते हैं पर उनके मुंह से तारीफ का एक शब्द भी नही निकलता..... कहीं ऊब तो नही गए मुझसे....अनु ऐसे ही विचारो में खोई हुई सोच रही थी... "ट्रिंग ट्रिंग...तभी फोन की घंटी ने उसे चौका दिया... "हेलो.... क्या मे विनोद कुमार जी से बात कर सकती हूं, उनका मोबाइल स्वीच ऑफ आ रहा है... दूसरी तरफ से आवाज़ आई... "आप कौन बोल रहीं है ...और विनोद से क्या काम है आपको.... अनु ने संदेहास्पद लहज़े मे पूछा.... "मैं डॉली बोल रही हूं... मुझे विनोद जी से बहुत ज़रूरी बात करना है जो मैं आपको नही बता सकती... आप प्लीज़ उनसे मेरी बात करवा दीजिए" उधर से जवाब... "वो घर पर नही है..... अनु ने गुस्से से कहा और फोन कट कर दिया... "ओह.....तो ये बात है... विनोद कही और इंगेज हो चुके हैं तभी आजकल उनका रवैया बदल गया है... अनु का दिल बैठ गया... विनोद..... अब जब तुम्हारे दिल में ही मैं नहीं तो, क्या फ़ायदा ऐसे रिश्ते को जबरन बांध कर रखने का.... तुम आज़ाद हो, मैंने तुम्हारी जंज़ीरें खोल दी हैं, मैं जा रही हूँ... अनु.... अनु ने पत्र टेबल पर रखा और अपना बेग उठाकर भरी आँखों से दरवाज़े की तरफ़ बढी.... तभी डोरबेल बज उठी.... अनु ने दरवाज़ा खोला, सामने विनोद खड़ा था.... "क्या हुआ.... कहां जा रही हो.... और ये बैग..... .. खैर.... अनु....जानती हो आज तो मै तुम्हें अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशखबरी देने वाला हूं.... ये लो, संभालो अपने खुद के घर की चाबी... इसी मे लगा हुआ था, सोच रहा था अपनी एनिवर्सरी से पहले तुम्हें अपने घर की मालकिन बना दूं...... तुम यहां अकेले में बोर हो जाती हो ना...आँफिस के बिल्कुल पास है वो सोसायटी....... अबसे मे तुम्हारे साथ तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा रह पाऊंगा ...... इतने मे विनोद का मोबाइल बजा.... "हेलो.... हां डॉली जी... थैंक्यू सो मच , मेरा लोन एप्रूवल मिल गया.... आपको दिल से धन्यवाद , आपकी मदद से मेरा सपना पूरा हो सका... अनु ने धीरे से टेबल से वह पत्र उठा लिया और मन ही मन ईश्वर का शुक्रिया अदा किया... "सच मे कुछ बंधन कितने अच्छे होते है...
- आम का अचार
* बहु सास और जेठानी का सम्मान मायके वालों से पहले होता है* आज समीर और स्नेहा की नयी फैक्ट्री का उद्घाटन था। देखते ही देखते एक साल में ही इतनी मेहनत करके दोनों पति-पत्नी ने अपनी फैक्ट्री भी खड़ी कर ली। सभी रिश्तेदार आए थे और समीर की खूब तारीफ किए जा रहे थे। भाई और भाभी प्रदीप और माया भी समीर के आगे पीछे ही घूम रहे थे। समीर की माँ ममता जी अपने बेटे की तारीफ सबके सामने किए जा रही थी और बार बार उसकी बलैया लिए जा रही थी। और सब लोग समीर को बधाइयां दिए जा रहे थे। ये अलग बात थी कि इस प्रगति में बहू का भी पूरा योगदान था लेकिन बहू को भला कौन पूछता है? इतने में पंडित जी ने समीर को आवाज देकर कहा, " अरे यजमान पूजा का समय हो गया है। आकर पूजा पूर्ण करवाइए। वैसे भी पूजा मुहूर्त पर ही हो जाए तो ही अच्छा होता है" उनकी बात सुनकर समीर ने कहा, "बस पंडित जी, पाँच मिनट और। स्नेहा अभी आती ही होगी" समीर की बात सुनकर ममता जी ने कहा, " अरे बेटा अगर स्नेहा को आने में देर है तो तेरे भैया भाभी पूजा में बैठ जाएंगे। पर पूजा तो मुहूर्त पर ही होनी चाहिए। पता नहीं स्नेहा कहाँ रह गई? कोई काम समय पर नहीं करती " ममता जी की बात सुनकर सुमीर मुस्कुरा कर बोला, " कोई बात नहीं मां। कितनी ही देर क्यों ना हो जाए। पूजा में तो स्नेहा ही मेरे साथ बैठेगी " उसकी बात सुनकर ममता जी ने कुछ नहीं कहा और मुँह बनाकर रिश्तेदारों में जाकर बैठ गई। और समीर यथावत स्नेहा का इंतजार करने लगा। इंतजार करते करते उसे वो दिन याद हो आया जब स्नेहा उसकी पत्नी बनकर उसकी जिंदगी में आई थी। समीर ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था क्योंकि शुरू से ही पढाई में कमजोर रहा था, इसलिए स्कूल के बाद तो उसने पढ़ाई ही छोड़ दी और छोटी-मोटी नौकरी करने लगा। जबकि समीर का भाई प्रदीप अच्छा खासा पढ़ा लिखा था और अच्छी नौकरी करता था। इस कारण से समीर की मां ममता जी का भी रुझान अपने बेटे प्रदीप की तरफ ही था। जाहिर सी बात है जिसके पति का घर में बोलबाला होता है, उसकी पत्नी का ही सम्मान सबसे ज्यादा होता है। यही हाल घर की बहुओं का था। माया घर में रानी की तरह रहती थी, जबकि स्नेहा घर में सबके लिए एक नौकरानी भर थी। स्नेहा दिन भर घर का काम करती थी पर फिर भी उसके हिस्से सिर्फ ताने आते थे। समीर जो भी कमाता था, वो सब ममता जी के हाथ में लाकर रख देता था। स्नेहा को अगर कुछ चाहिए होता था तो ममता जी से मांगना पड़ता था। पर ममता जी से पहले तो माया ताने सुनाने लग जाती थी। यहां तक कि स्नेहा के खाने पीने में भी रोक टोक थी। माया और ममता जी स्नेहा के थाली पर नजर जरूर रखती थी कि वो अपनी थाली में क्या-क्या लेकर बैठी है। और फिर उसे खाते देखकर जरूर बोलती थी, " हां हां, मुफ्त का माल है। उड़ा लो। बेचारा जेठ तो कोल्हू का बैल बना बैठा है। इन्हें क्या फर्क पड़ता है" स्नेहा का हाथ खाना खाते-खाते रुक जाता। ऐसा नहीं था कि समीर को दिख नहीं रहा था। एक दो बार ममता जी को उसने समझाने की कोशिश भी की थी, पर ममता जी ने उसे ही चुप करा दिया। पर उस दिन, बात कुछ भी नहीं थी। एक आम के आचार की इतनी औकात नहीं होती, जितनी उस दिन स्नेहा को दिखाई गई थी। दरअसल उस दिन रविवार था। घर में सभी सदस्य मौजूद थे इस कारण ममता जी ने स्नेहा को मटर पनीर, दाल मखनी, फ्राइड राइस, गुलाब जामुन और पूरी बनाने को कहा था। माया तो वैसे भी कोई काम नहीं करती थी। स्नेहा ने अकेली ही रसोई में सारा खाना तैयार किया। खाना तैयार करके वो गरमा गरम पूरी तल रही थी और साथ ही सब को खाना परोसती जा रही थी। सब लोगों ने खाना खाया लेकिन किसी ने ये ध्यान नहीं दिया कि स्नेहा के लिए सब्जी बची ही नहीं। स्नेहा खाना खाने बैठी तो उसने देखा कि सब्जी और दाल के बर्तन खाली थे। अब वो खाना कैसे खाती? तभी उसे याद आया कि माया भाभी के मायके से एक दिन पहले ही आम का अचार आया है। तो वो रसोई में से अपने लिए थोड़ा सा आम का आचार निकाल कर ले आई। और उसी के साथ पूरी खाने लगी। उसे खाना खाते देखकर माया ने चिल्लाना शुरू कर दिया, " किस से पूछ कर तुमने आम का अचार निकाला? ये मेरे मायके वालों ने मेरे लिए भेजा है। इतने ही आम के अचार का शौक है तो अपने मायके वालों को बोलो" माया की बात सुनकर स्नेहा की आंखों में आंसू आ गए, " भाभी सब्जी खत्म हो गई थी इसलिए मैंने आचार निकाला। मैंने तो अभी तक खाना भी नहीं खाया" " तो तेरे खाने की जिम्मेदारी हमारी है क्या? घर में रख रखा है। तुम्हारे खर्चे उठा रहे है तो तुम लोग तो सिर पर चढ़कर नाचने लगे हो" माया अभी भी चिल्ला रही थी। उसकी आवाज सुनकर घर में से बाकी सदस्य भी निकल कर बाहर आ गए। ममता जी ने भी माया का पक्ष लेते हुए कहा, " छोटी बहू शर्म नहीं आती तुझे। अरे एक आम के अचार की क्या औकात होती है? जो तूने उसकी चोरी की। पता नहीं घर में से क्या-क्या चुराती होगी" " बस माँ जी बहुत बोल दिया आपने" स्नेहा ने लगभग चिल्लाते हुए कहा। स्नेहा के चिल्लाने की आवाज से कुछ पल के लिए माहौल बिल्कुल शांत हो गया। फिर माया गरजते हुए बोली, " तेरी इतनी हिम्मत कि तू हम पर चिल्ला रही है। हमारा खाती है और हमें ही सुना रही है" कहते हुए माया थप्पड़ मारने के लिए स्नेहा की तरफ बढ़ी तो उसने उसका हाथ पकड़कर मोड़ दिया। हाथ इतनी जोर से मोड़ा की माया की चीख निकल गई। यह देखकर ममता जी चिल्लाई, "समीर तेरी पत्नी को धक्के देकर बाहर निकाल। अब यह इस घर में रहने लायक नहीं" " ठीक है मां, जैसी आपकी मर्जी" समीर का इतना कहते ही माया और ममता जी कुटिल मुस्कान के साथ मुस्कुराई। स्नेहा समीर की तरफ देखने लगी। समीर अंदर कमरे में गया। अपना और स्नेहा का सामान पैक कर कुछ देर बाद बाहर आया और स्नेह का हाथ पकड़ते हुए घर के बाहर निकलने लगा। इतने ममता जी बोली, " अरे तू कहां जा रहा है?" " बस मां, और कितना बर्दाश्त करवाओगी। पता है, इस घर में किसी को स्नेहा की रोटी बुरी नहीं लग रही थी, बल्कि मैं कम कमा रहा हूं वो बुरा लग रहा था। अगर आज मेरी कमाई भी अच्छी होती तो मेरी पत्नी को इतना कुछ सुनना नहीं पड़ता। सारा काम वो करती है पर ताने भी उसी के हिस्से में आते हैं। इसलिए अब आप भी चैन से रहो और हमें भी चैन से रहने दो। इसलिए मैं घर छोड़कर जा रहा हूं" कहता हुआ समीर घर से निकल गया। किसी ने उसे रोकने की कोशिश भी नहीं की। उसके बाद दोनों किराए के कमरे में शिफ्ट हुए। उनकी वहां गृहस्थी बसाने में स्नेहा के माता-पिता ने पूरा योगदान दिया। कुछ दिनों बाद स्नेहा और समीर ने हिम्मत कर लोन लिया और एक छोटी सी टाई और डाई का काम शुरू किया। तब कपड़ों को रंगने का काम एक कमरे से शुरू होकर कब फैक्ट्री में तब्दील हो गया, दोनों को ही पता नहीं चला। पर दोनों की मेहनत आज नजर आ रही थी। इतने में बाहर कार आकर रुकी। उसमें से स्नेहा निकल कर बाहर आई। साथ में उसके मम्मी पापा भी थे। उन्हें देखकर समीर मुस्कुरा दिया और खुद आगे बढ़कर उन लोगों को अंदर लाने के लिए उनके पास चला गया। हमेशा शिफॉन की हल्की सी साड़ी पहनने वाली स्नेहा आज भारी चुनरी की साड़ी पहन कर आई थी। गहनों के नाम पर गले में बस एक हल्का सा मंगलसूत्र और कानों में छोटी बालिया थी। हाथों में लाख की चूड़ियां पहने हुए थी। पर फिर भी वह बहुत सुंदर लग रही थी। स्नेहा को इस तरह देखकर और समीर को उसके माता-पिता का इस तरह सम्मान करते देखकर माया ममता जी के पास आकर बोली, " देखा माँजी आपने। अपने माता-पिता को तो अपने साथ लेकर आई है और आपको भेज दिया रिश्तेदारों के साथ। यही सम्मान है आपका" उसकी बात सुनकर ममता जी बोली, " हां देख रही हूं बहू, पर अब इतने लोगों के बीच में क्या बोलूं? कितना ही सम्मान कर लो। रहेगा तो मेरा स्थान ही ऊंचा। आखिर उसके पति को मैंने जना है" समीर और स्नेहा हवन में बैठ गए और महज आधे घंटे में पूजा संपन्न हो गई। हवन पूजन के बाद भोजन की व्यवस्था वही की गई थी। सभी रिश्तेदारों ने भोजन का भी लुफ्त उठाया। खुद समीर और स्नेहा ने उसके माता-पिता को बिठाकर अपने हाथों से खाना परोसा। उन्हें खिला पिलाकर उन्हें अपने एक दोस्त के साथ उसकी कार से घर पर रवाना कर दिया। पर जाने से पहले स्नेहा की मां के लिए एक सुंदर सी साड़ी और उसके पिता के लिए शॉल जरूर गिफ्ट की। यह सब देखकर तो ममता जी और ज्यादा जल भून गई। कई रिश्तेदार तो वहां से चलते बने। अब फैक्ट्री में रह गए समीर, स्नेहा, ममता जी, माया और प्रदीप। माया ने मौका देखकर ताना मारा, " लो भाई, देवरानी तो बनी महारानी। अपने माता पिता को ही पूछ रही थी। सास को तो पूछना ही भूल गई। सच कहा है किसी ने खुद के माता-पिता के लिए ही जी दुखता है, सास-ससुर को तो कौन पूछे?" इतने में ममता जी ने भी कहा, " बेटी के घर से कौन माता-पिता गिफ्ट लेकर जाता है। इतना भी नहीं पता तेरे माता-पिता को। मेरे बेटे का फालतू का खर्चा करवा दिया। अपने माता-पिता को देने के लिए तो तेरे पास सब कुछ है। यहाँ तेरी सास जेठानी खड़ी है, उन्हें तो अभी तक तूने कुछ भी नहीं दिया" ये सुन कर स्नेहा मुस्कुराई और एक बैग लेकर आई। उसमें से एक साड़ी निकाल कर ममता जी को दी और एक साड़ी निकाल कर माया को पकड़ते हुए बोली, " ये रहा आप लोगों का गिफ्ट है" साड़ी को उलट-पुलट कर देखने के बाद माया बोली, " बस एक साड़ी? अपनी मां के बराबर ही हमको दे रही है। अरे हम तेरे ससुराल वाले हैं। हमारे लिए तो इससे ज्यादा बनता है" " जी बिल्कुल! आप के लिए से ज्यादा ही बनता है। मैं तो भूल ही गई थी। रुकिए जरा" कहकर स्नेहा अंदर गई और ऑफिस में से एक बड़ा सा बॉक्स निकाल कर लेकर आई, " यह आपके लिए जेठानी जी। ये आप रखिए" स्नेहा ने माया को वो बॉक्स पकड़ाया। वो काफी वजनदार था। उससे रहा नहीं गया तो उसने उसी समय उस बॉक्स को खोला। उसमें एक मर्तबान रखा हुआ था। उसे निकाल कर देखा तो उसमें आम का अचार रखा था। माया और ममता जी हैरानी से स्नेहा और समीर की तरफ देख रहे थे। तब समीर ने कहा, " माँ हैरानी से क्या देख रही हो? यह तो वही आम का आचार है ना जिसने हमें हमारी औकात बताई थी। यह आपके लिए हम से ज्यादा कीमती था। इसलिए इससे महंगी चीज तो और क्या हो सकती थी? आखिर इसी के लिए तो आपने स्नेहा को चोर साबित किया था। तो आपको यही लौटा रहे हैं" कहते हुए समीर ने हाथ जोड़ लिये। ममता जी कुछ कह ना पाई और माया और प्रदीप के साथ अपना सा मुंह लेकर वहां से रवाना हो गयी।
- आत्म मूल्यांकन
आत्म मूल्यांकन एक बार एक व्यक्ति कुछ पैसे निकलवाने के लिए बैंक में गया। जैसे ही कैशियर ने पेमेंट दी कस्टमर ने चुपचाप उसे अपने बैग में रखा और चल दिया। उसने एक लाख चालीस हज़ार रुपए निकलवाए थे। उसे पता था कि कैशियर ने ग़लती से एक लाख चालीस हज़ार रुपए देने के बजाय एक लाख साठ हज़ार रुपए उसे दे दिए हैं लेकिन उसने ये आभास कराते हुए कि उसने पैसे गिने ही नहीं और कैशियर की ईमानदारी पर उसे पूरा भरोसा है चुपचाप पैसे रख लिए। इसमें उसका कोई दोष था या नहीं लेकिन पैसे बैग में रखते ही 20,000 अतिरिक्त रुपयों को लेकर उसके मन में उधेड़ -बुन शुरू हो गई। एक बार उसके मन में आया कि फालतू पैसे वापस लौटा दे लेकिन दूसरे ही पल उसने सोचा कि जब मैं ग़लती से किसी को अधिक पेमेंट कर देता हूँ तो मुझे कौन लौटाने आता है??? बार-बार मन में आया कि पैसे लौटा दे लेकिन हर बार दिमाग कोई न कोई बहाना या कोई न कोई वजह दे देता पैसे न लौटाने की। लेकिन इंसान के अन्दर सिर्फ दिमाग ही तो नहीं होता… दिल और अंतरात्मा भी तो होती है… रह-रह कर उसके अंदर से आवाज़ आ रही थी कि तुम किसी की ग़लती से फ़ायदा उठाने से नहीं चूकते और ऊपर से बेईमान न होने का ढोंग भी करते हो। क्या यही ईमानदारी है? उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। अचानक ही उसने बैग में से बीस हज़ार रुपए निकाले और जेब में डालकर बैंक की ओर चल दिया। उसकी बेचैनी और तनाव कम होने लगा था। वह हल्का और स्वस्थ अनुभव कर रहा था। वह कोई बीमार थोड़े ही था लेकिन उसे लग रहा था जैसे उसे किसी बीमारी से मुक्ति मिल गई हो। उसके चेहरे पर किसी जंग को जीतने जैसी प्रसन्नता व्याप्त थी। रुपए पाकर कैशियर ने चैन की सांस ली। उसने कस्टमर को अपनी जेब से हज़ार रुपए का एक नोट निकालकर उसे देते हुए कहा, ‘‘भाई साहब आपका बहुत-बहुत आभार! आज मेरी तरफ से बच्चों के लिए मिठाई ले जाना। प्लीज़ मना मत करना।” ‘‘भाई आभारी तो मैं हूँ आपका और आज मिठाई भी मैं ही आप सबको खिलाऊँगा, ’’ कस्टमर ने बोला। कैशियर ने पूछा, ‘‘ भाई आप किस बात का आभार प्रकट कर रहे हो और किस ख़ुशी में मिठाई खिला रहे हो?’’ कस्टमर ने जवाब दिया, ‘‘आभार इस बात का कि बीस हज़ार के चक्कर ने मुझे आत्म-मूल्यांकन का अवसर प्रदान किया। आपसे ये ग़लती न होती तो न तो मैं द्वंद्व में फँसता और न ही उससे निकल कर अपनी लोभवृत्ति पर क़ाबू पाता। यह बहुत मुश्किल काम था।
- ओहदे की कीमत || बेटी पढाओ,दहेज मिटाओ
*ओहदे की कीमत(दहेज में)* चौबे जी का लड़का है अशोक, एमएससी पास। नौकरी के लिए चौबे जी निश्चिन्त थे, कहीं न कहीं तो जुगाड़ लग ही जायेगी। ब्याह कर देना चाहिए। मिश्रा जी की लड़की है ममता, वह भी एमए पहले दर्जे में पास है, मिश्रा जी भी उसकी शादी जल्दी कर देना चाहते हैं। सयानों से पोस्ट ग्रेजुएट लड़के का भाव पता किया गया। पता चला वैसे तो रेट पांच से छः लाख का चल रहा है, पर बेकार बैठे पोस्ट ग्रेजुएटों का रेट तीन से चार लाख का है। सयानों ने सौदा साढ़े तीन में तय करा दिया। बात तय हुए अभी एक माह भी नही हुआ था, कि पब्लिक सर्विस कमीशन से पत्र आया कि अशोक का डिप्टी कलक्टर के पद पर चयन हो गया है। चौबे- साले, नीच, कमीने... हरामजादे हैं कमीशन वाले...! पत्नि- लड़के की इतनी अच्छी नौकरी लगी है नाराज क्यों होते हैं? चौबे- अरे सरकार निकम्मी है, मैं तो कहता हूँ इस देश में क्रांति होकर रहेगी... यही पत्र कुछ दिन पहले नहीं भेज सकते थे, डिप्टी कलेक्टर का 40-50 लाख यूँ ही मिल जाता। पत्नि- तुम्हारी भी अक्ल मारी गई थी, मैं न कहती थी महीने भर रुक जाओ, लेकिन तुम न माने... हुल-हुला कर सम्बन्ध तय कर दिया... मैं तो कहती हूँ मिश्रा जी को पत्र लिखिये वो समझदार आदमी हैं। प्रिय मिश्रा जी, अत्रं कुशलं तत्रास्तु ! आपको प्रसन्नता होगी कि अशोक का चयन डिप्टी कलेक्टर के लिए हो गया है। विवाह के मंगल अवसर पर यह मंगल हुआ। इसमें आपकी सुयोग्य पुत्री के भाग्य का भी योगदान है। आप स्वयं समझदार हैं, नीति व मर्यादा जानते हैं। धर्म पर ही यह पृथ्वी टिकी हुई है। मनुष्य का क्या है, जीता मरता रहता है। पैसा हाथ का मैल है, मनुष्य की प्रतिष्ठा बड़ी चीज है। मनुष्य को कर्तव्य निभाना चाहिए, धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। और फिर हमें तो कुछ चाहिए नहीं, आप जितना भी देंगे अपनी लड़की को ही देंगे।वर्तमान ओहदे के हिसाब से देख लीजियेगा फिर वरना हमें कोई मैचिंग रिश्ता देखना होगा। मिश्रा परिवार ने पत्र पढ़ा, विचार किया और फिर लिखा- प्रिय चौबे जी, आपका पत्र मिला, मैं स्वयं आपको लिखने वाला था। अशोक की सफलता पर हम सब बेहद खुश हैं। आयुष्मान अब डिप्टी कलेक्टर हो गया हैं। अशोक चरित्रवान, मेहनती और सुयोग्य लड़का है। वह अवश्य तरक्की करेगा। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि ममता का चयन आईएएस के लिए हो गया है। कलेक्टर बन कर आयुष्मति की यह इच्छा है कि अपने अधीनस्थ कर्मचारी से वह विवाह नहीं करेगी। मुझे यह सम्बन्ध तोड़कर अपार हर्ष हो रहा है। आज के आधुनिक समय में भी दहेज़ प्रथा नाम की बुराई हर जगह फैली हुई है। पिछड़े भारतीय समाज में दहेज़ प्रथा अभी भी विकराल रूप में है। *"बेटी पढाओ,दहेज मिटाओ"*