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धीरे-धीरे सूखती औरत

  • लेखक की तस्वीर: ELA
    ELA
  • 15 अक्टू॰
  • 2 मिनट पठन

धीरे-धीरे सूखती है एक औरत,

जैसे रात में किसी बगीचे का फूल

जिसे किसी ने तोड़ा नहीं,

मगर नमी चुरा ली हो हवा ने।

वो सूखती है

जब सुबह की चाय बनाते वक़्त

कोई "थैंक यू" नहीं कहता,

जब थाली में परोसी रोटियों के स्वाद पर

चेहरे सिकुड़ते हैं, मगर उसकी मेहनत कोई नहीं देखता।

वो सूखती है

जब अपनी बात को बीच में रोक देना

उसकी आदत बन जाती है,

क्योंकि कोई सुनता नहीं,

या सुनकर भी समझता नहीं।

वो सूखती है

जब उसकी पसंदें

"गृहस्थी के तवे" में जल कर राख हो जाती हैं।

नीली साड़ी जो उसे बहुत पसंद थी,

वो अब अलमारी के कोने में है

क्योंकि अब उसे "शोभा नहीं देती।"

सूखना कोई अचानक घटना नहीं होती।

ये एक अनदेखा युद्ध है

हर दिन, हर पल, हर रिश्ते में थोड़ा-थोड़ा मरना,

बिना तेरहवीं, बिना शोक,

बिना किसी को खबर हुए।

वो सूखती है

जब हँसी एक सामाजिक अभिनय बन जाती है,

जब "मैं ठीक हूँ"

एक नकाब बन जाता है

जिसके नीचे

आँखों में नींद नहीं,

बल्कि अनकहे सपनों की भीड़ होती है।

वो सूखती है

जब "अपने लिए कुछ करना"

एक अपराध लगता है,

जब उसे सिखा दिया गया होता है

कि पहले बच्चे, पति, परिवार...

और सबसे अंत में कहीं

उसका नाम आता है

अगर आता है।

फिर भी... वो चुप रहती है।

क्योंकि उसे सिखाया गया है

"अच्छी औरतें बर्दाश्त करती हैं,"

"शिकायत करना स्वार्थ होता है,"

"त्याग ही उसका गहना है।"

और इस 'त्याग' की माला में

वो खुद को मोती की तरह पीसती है,

हर दिन थोड़ा और धुंधली होती जाती है,

जैसे पुराने तस्वीरों की मुस्कान।

सूखना सिर्फ पानी की कमी नहीं होती,

ये उस प्यार की कमी होती है

जो सिर्फ "लेता" है, "देता" नहीं।

ये उस स्पर्श की कमी होती है

जो सिर्फ ज़िम्मेदारी निभाता है,

मगर आत्मा को नहीं छूता।

ये उस संवाद की कमी होती है

जहाँ वो बिना डरे,

खुद के बारे में बोल सके

जैसी वो है, वैसी।

और जब वो पूरी तरह सूख जाती है,

तो पेड़ की तरह गिरती नहीं

बल्कि एक लकड़ी बन जाती है

किसी के चूल्हे में जलने के लिए,

किसी की ठंड हरने के लिए,

या किसी के सपनों की नाव बनाने के लिए।

क्योंकि वो औरत है

मरती भी है तो किसी के लिए।

सूखती भी है तो किसी की राहत बनकर।

और हर बार,

अपने अस्तित्व को मिटाकर

किसी और की कहानी का आधार रखती है।

इस सूखने की आहट कोई नहीं सुनता,

क्योंकि औरत हमेशा बोलती नहीं

वो बस जीती है, सहती है, और अंत में चुपचाप बदल जाती है।

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