कभी मैं सोचती थी कि घर पर रहना कमज़ोरी है।
मुझे लगता था कि जो औरत कुछ बड़ा नहीं कर रही, वो पिछड़ गई है।
इसलिए शादी के बाद भी मैंने नौकरी नहीं छोड़ी।
सुबह से शाम तक दौड़ती रही... ऑफिस, घर, जिम्मेदारियां... पर दिल के अंदर कुछ हमेशा टूटता सा रहता था।
थक जाती थी, पर फिर भी लगता था — नहीं, मुझे हार नहीं माननी।
एक दिन मेरी सास ने बहुत प्यार से मुझे अपने पास बुलाया।
उन्होंने कहा,
"बेटा, तुम और मेरा बेटा अलग नहीं हो, एक हो। जो भी करोगे, दोनों की जिंदगी पर असर पड़ेगा।
जिंदा रहने के लिए पैसा जरूरी है, लेकिन सुकून से जीने के लिए घर जरूरी है।
वो बाहर कमाकर ला रहा है, जरूरतें पूरी हो रही हैं... अब घर को एक ऐसी जगह बनाओ जहाँ लौटने का मन करे।
बेटा, हम सब इस दुनिया में एक मुसाफिर की तरह आए हैं... कब तक हैं, कोई नहीं जानता। इसलिए लड़ाई में नहीं, प्यार में जिंदगी बिताओ।"
उनकी बातें सुनकर मेरा मन भीतर तक हिल गया।
पहले तो मन में सवाल उठे... क्या मैं हार रही हूं? क्या मैं अपने सपनों से समझौता कर रही हूं?
लेकिन फिर मैंने खुद से पूछा — मैं किसके लिए दौड़ रही हूं? किस खुशी के लिए खुद को जला रही हूं?
थोड़ा सोचने के बाद मैंने नौकरी छोड़ दी।
आज, जब सुबह धूप खिड़की से अंदर आती है,
जब घर में हंसी गूंजती है,
जब पति मुस्कुराकर घर आता है,
जब सास प्यार से सिर पर हाथ रखती है,
तो मैं समझती हूं कि मैंने कुछ भी खोया नहीं, बल्कि सब कुछ पाया है।
अब मैं जानती हूं —
सपने सिर्फ बाहर नहीं पूरे होते,
कभी-कभी घर के चार दीवारों में ही असली जादू होता है।