मुझे न जाने क्यों किसी के प्रति कोई शिकायत करने की हिम्मत ही नहीं होती।
कभी किसी की तरफ उंगली उठाकर कह नहीं पाती कि "तुम्हारे इस बर्ताव से मुझे बहुत तकलीफ हो रही है।"
ये तक नहीं कह पाती कि "मेरे साथ इस तरह बात मत करो",
जिससे अनचाहे ही आँखों से आँसू बहने लगते हैं।
असल में, मैं अपनों के सामने कभी कठोर नहीं हो पाती।
मैं हमेशा गीली मिट्टी जैसी ही नरम बनी रह जाती हूँ।
जबकि होना तो ये चाहिए था कि मैं सख़्त बनूँ,
उनसे साफ-साफ जवाब माँग सकूँ,
ताकि अगली बार कुछ कहने से पहले वो भी कई बार सोचें।
लेकिन अफ़सोस, मैं नहीं कर पाती!
जैसे कि मैंने कहा—मैं खुद को गीली मिट्टी मानती हूँ।
इसलिए सब कुछ समझकर भी खुद को संभाल नहीं पाती,
और अक्सर बिखर ही जाती हूँ।
हाँ, मगर एक बात मैं बहुत अच्छे से कर पाती हूँ—
वो है चुपचाप सब कुछ सह जाना, खुद को तकलीफ देना,
और फिर आँखों से बहते आँसुओं की बारिश।
ईश्वर ने मुझे ये हुनर बहुत खूबसूरती से दिया है कि
मैं अपनी पीड़ा को सबसे छुपा सकूँ,
इतना कि सामने वाला ये तक न समझ पाए
कि उसके एक छोटे से लहजे ने
किसी को अंदर तक तोड़ कर रख दिया है।
