माँ का हस्तक्षेप
एक शहर में आरती नाम की लड़की थी। उसका विवाह बहुत अच्छे घराने में हुआ था। पति सौरभ सादगी पसंद, जिम्मेदार और परिवार को प्राथमिकता देने वाला इंसान था। आरती का ससुराल भी उसे बेटी की तरह मानता था। शादी के शुरुआती साल बहुत अच्छे बीते।
लेकिन धीरे-धीरे एक अनचाही दखलअंदाजी शुरू हुई—आरती की माँ नीलम का।
बीज बोना
नीलम अक्सर बेटी को फोन करके कहती:
“सौरभ तुम्हें उतना समय नहीं देता जितना देना चाहिए।”
“देखो, तुम्हारी ननद ने ऐसा क्यों कहा? तुम क्यों चुप रही?”
“तुम्हारी सास ज़्यादा बोलती हैं, यह सब सहना मत।”
आरती शुरू में इन बातों को नज़रअंदाज़ करती रही, लेकिन धीरे-धीरे उसकी सोच पर असर होने लगा। वह पति की छोटी-छोटी कमियों को बड़ा समझने लगी, सास-ससुर के शब्दों में कटुता ढूँढने लगी।
घर में दरार
सौरभ ने कई बार कहा –“आरती, तुम्हारी माँ की बातें सुनकर ही तुम बदल जाती हो। पहले तुम मुस्कुराकर सब सँभाल लेती थीं, अब हर बात पर तकरार करती हो।”
लेकिन आरती को लगता – “माँ तो मेरा भला चाहती हैं। वो गलत कैसे हो सकती हैं?”
धीरे-धीरे पति-पत्नी के बीच झगड़े बढ़ गए। जहाँ पहले हँसी-खुशी थी, वहाँ अब खामोशी और तकरार रहने लगी।
सच्चाई का आईना
एक दिन आरती की छोटी बहन ने उसे समझाया –“दीदी, माँ आपको अपनी सोच से देखती हैं। हो सकता है उनके जीवन में उन्हें सुख नहीं मिला हो, इसलिए वे अनजाने में आपकी शादीशुदा जिंदगी को अपनी नजर से देखती हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वही आपकी सच्चाई है। अगर आप अपनी शादी बचाना चाहती हैं, तो आपको खुद समझना होगा कि आपका रिश्ता कैसा है।”
आरती को पहली बार अहसास हुआ कि माँ का प्यार कभी-कभी अति-संरक्षण में बदलकर बेटी की शादीशुदा जिंदगी को कमजोर कर सकता है।
बदलाव का निर्णय
आरती ने निश्चय किया कि वह अपनी शादी को अपने विवेक से जीएगी, न कि किसी और की सोच से। उसने सौरभ से माफी माँगी और कहा –“अब मैं समझ गई हूँ, मेरी शादी मेरी जिम्मेदारी है। माँ मेरी चिंता करती हैं, लेकिन मुझे अपने रिश्ते का सच खुद तय करना होगा।”
धीरे-धीरे झगड़े कम हुए, विश्वास लौट आया और उनका घर फिर से खुशियों से भर गया।
सीख
👉 कई बार माँ अपनी बेटी की शादीशुदा जिंदगी में उत्प्रेरक (Catalyst) का काम करती है, लेकिन हमेशा सकारात्मक नहीं।👉 इसके कारण हो सकते हैं –
अपने जीवन के कड़वे अनुभव – जो माँ ने सहा, वही बेटी को दोहराने से डरती है।
अति-संरक्षण – माँ चाहती है कि बेटी को कभी दुख न हो, इसलिए हर छोटी बात को बड़ा बना देती है।
अविश्वास – माँ को लगता है कि दामाद या ससुराल बेटी का सही ख्याल नहीं रखेंगे।
अहंकार – कभी-कभी माँ चाहती है कि बेटी मायके से ही प्रभावित रहे और ससुराल में पूरी तरह न रच-बस जाए।
👉 लेकिन हकीकत यही है कि बेटी की शादी उसकी अपनी यात्रा है। अगर माँ ज्यादा हस्तक्षेप करेगी तो वह रिश्ता टूट भी सकता है।
प्रेरणा
एक समझदार माँ वही होती है, जो बेटी को यह सिखाए –“रिश्ता निभाने के लिए धैर्य, विश्वास और संवाद जरूरी है। अगर समस्या बड़ी हो तो मैं तुम्हारे साथ हूँ, लेकिन छोटी-छोटी बातों को खुद सँभालना सीखो।”
आखिर एक माँ अपनी ही बेटी की
शादीशुदा जिदंगी मे उत्प्रेरक का काम
और घर तोडने का काम क्यों करती है??
क्या कारण हो सकते हैं ??
