एक ऐसा आकाश, जहाँ हर रंग बिना मांगे मिल जाता था। सुबह की पहली किरण आँखों में सपनों की तरह उतरती थी, और रात की चादर तले हर चिंता खुद-ब-खुद सो जाती थी। किसी टूटे खिलौने पर रोना, किसी पेड़ की टहनी से बात करना, मिट्टी में लिपटी वो हँसी—सब कुछ बस यूँ ही, बिना वजह के, बेहद सच्चा था।
समय जैसे-जैसे आगे बढ़ा, कुछ पीछे छूटता गया। अब वो हँसी किसी तस्वीर में जमी हुई सी लगती है। चेहरे पर तो मुस्कान है, लेकिन वैसी नहीं, जैसी तब थी—जो आँखों से निकलकर सीधे दिल में उतरती थी। अब सब कुछ कहने से पहले सोचना पड़ता है, और मुस्कुराने से पहले कारण ढूँढना।
उम्र के साथ समझ बढ़ी, लेकिन उसी के साथ कुछ खो गया। वो भावनाएँ जो कभी बारिश की बूंदों में भीगती थीं, अब किसी कोने में चुपचाप बैठी हैं। अब किसी की आँखों में देखना भी एक झिझक बन गया है, जैसे भावनाएँ अब खुलकर सामने आने से डरती हैं।
बचपन में हर चीज़ को पूरी तरह महसूस करने की ताक़त थी। दुख भी आता तो गहराई तक उतरता, लेकिन उसी की गोद में सुकून भी होता। अब दुख आता है तो सोच में उलझ जाता है, और सुकून जैसे किसी पुराने पन्ने में छिपा रह जाता है, जो बार-बार पलटने पर भी नहीं मिलता।
क्या वो दिन फिर से आ सकते हैं? शायद नहीं। लेकिन उनकी परछाइयाँ अब भी हमारे भीतर कहीं सांस लेती हैं। कभी कोई गंध, कोई आवाज़, कोई पुराना ख्याल उन्हें जगा देता है, और कुछ पल के लिए वक़्त थम जाता है। उन लम्हों में हम फिर वही बन जाते हैं—निर्मल, निश्छल, और बिल्कुल सच्चे।
कभी-कभी, सिर्फ यादें ही काफी होती हैं यह एहसास दिलाने के लिए कि हम कौन थे... और शायद अब भी वही हैं... कहीं गहरे भीतर।
