मैं हमेशा सोचती थी कि खुश रहना मतलब — ब्रांडेड कपड़े, महंगे फोन, इंस्टाग्राम पर परफेक्ट फोटो और लोगों की तारीफें।
हर पार्टी में सबसे अच्छा दिखना मेरा मकसद होता था।
मेरी जिंदगी बाहर से बहुत चमकदार लगती थी... लेकिन अंदर?
अंदर एक अजीब सी थकान थी।
कभी खुद से बात करने का वक्त नहीं मिलता था,
कभी अपनों की बात सुनने का मन नहीं करता था।
शादी के बाद भी यही आदतें रहीं।
मैं अपने ही तरीके से जीना चाहती थी — शॉपिंग, सोशल मीडिया, आउटिंग...
लेकिन एक दिन मेरी सास ने बड़ी सादगी से कहा,
"बेटा, असली खुशी वो होती है जो दिल से महसूस हो, न कि दूसरों को दिखाने के लिए जी जाए।"
मैंने हँस के टाल दिया।
मुझे लगा — 'पुरानी सोच है, समझेंगी नहीं।'
लेकिन वक्त ने धीरे-धीरे मुझे सिखाया।
जब एक दिन बुखार में मैंने फोन उठाया और देखा कोई भी “लाइक” या “कॉमेंट” मेरा हाल नहीं पूछ रहा था,
लेकिन मेरी सास मेरे सिर पर हाथ रखकर कह रही थीं — "चाय बना दूँ?"
तब मैंने महसूस किया — प्यार कैमरे से नहीं, इंसान से होता है।
अब मैं महंगे कपड़े नहीं, आरामदायक पल चुनती हूं।
अब मैं फ़ोटो नहीं, यादें जमा करती हूं।
अब मुझे दिखावा नहीं, सच्चा अपनापन अच्छा लगता है।
कभी मैं दिखावे में खुश थी,
अब मैं सच में खुश हूं।