भारतीय समाज, विशेषकर ग्रामीण भारत, एक बुनियादी परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। जहाँ एक ओर युवा लड़कियाँ समाज की पारंपरिक सीमाओं को तोड़कर शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, वहीं दूसरी ओर गाँवों में एक ऐसी पीढ़ी खड़ी हो रही है बेरोजगार कुंवारे युवाओं की फौज, जो न तो सामाजिक बदलाव की रफ्तार पकड़ पा रही है और न ही अपने पारंपरिक पुरुष वर्चस्व को सहजता से छोड़ पा रही है। यह असंतुलन केवल आर्थिक या शैक्षिक नहीं, बल्कि एक गहरे मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तनाव का संकेत भी है।
1. पुरुष युवाओं की स्थिति: कुंवारेपन की पीड़ा या पहचान का संकट?
गाँवों में युवाओं की एक बड़ी संख्या बेरोजगार है। ये वही युवक हैं जो कभी पारिवारिक मुखिया बनने, ज़िम्मेदारियाँ संभालने और शादी करके “घर बसाने” का सपना देखते थे। लेकिन अब उनके सपनों की जमीन खिसक रही है।
विवाह की पारंपरिक व्यवस्था में पहले लड़कों को ही केंद्र में रखा जाता था "लड़का क्या करता है?" यह सवाल तय करता था कि रिश्ता होगा या नहीं।
अब समाज बदल रहा है। शादी एक समझौता नहीं, चयन बन गई है।
लड़कियाँ अब अपनी राय रख रही हैं, पढ़-लिख रही हैं, नौकरी कर रही हैं और सिर्फ 'घर जमाई' या कमाऊ लड़का नहीं, एक समझदार, भावनात्मक रूप से स्थिर और सम्मान देने वाला साथी चाहती हैं।
इसी बदलाव में वे युवा जो अभी भी पुरानी सोच में जी रहे हैं, आत्म-संदेह, हीन भावना, और कभी-कभी हिंसक असंतोष का शिकार हो रहे हैं।
2. बदलती लड़कियाँ: पिंजरे से उड़ती हुई चिड़िया
पहले की तुलना में अब लड़कियाँ सिर्फ रिश्तों या घर की ज़िम्मेदारियों तक सीमित नहीं हैं।
वे कॉरपोरेट ऑफिसों में, शिक्षा संस्थानों में, स्वास्थ्य सेवाओं में, स्वतंत्र व्यवसायों में, और यहाँ तक कि राजनीति और टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बना रही हैं।
पहले जहाँ बेटियों की शादी बचपन से ही तय कर दी जाती थी, अब माँ-बाप बेटी की इच्छा पूछते हैं।
आज की लड़की को सिर्फ घर चलाने वाली नहीं, बल्कि खुद का घर बनाने वाली समझा जा रहा है।
कंपनियाँ महिला कर्मचारियों को ज्यादा भरोसेमंद, स्थिर और पेशेवर मान रही हैं।
यह बदलाव सिर्फ आर्थिक नहीं, सांस्कृतिक क्रांति है। महिलाएँ अब 'संपत्ति' नहीं, 'निर्माता' बन रही हैं अपने भविष्य की निर्माता।
3. वर्ग और अवसर: कौन रह गया पीछे?
हमारे समाज में वर्ग विभाजन का असर आज भी गहरा है:
अमीर और उच्च मध्यम वर्ग में लड़कियाँ अक्सर ज्यादा अवसरों के साथ आगे बढ़ रही हैं।
मध्यम वर्ग अब 'जॉब' को प्राथमिकता देता है शादी के लिए भी, सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए भी।
लेकिन जो गरीब या छोटे मोटे प्राइवेट जॉब करने वाले लड़के हैं, उनकी स्थिति बेहद असहज है।
उन्हें न तो शादी के लिए प्राथमिकता मिल रही है, न ही समाज में कोई खास स्थान।
ये युवा न तो पुरानी व्यवस्था में फिट हो पा रहे हैं, न नई में। इस सामाजिक स्थानहीनता से असुरक्षा, आक्रोश और अवसाद जन्म ले रहा है।
4. सामाजिक मनोविज्ञान: पहचान, अस्वीकार्यता और प्रतिरोध
इस बदलाव का गहरा प्रभाव युवाओं की मानसिकता पर पड़ रहा है:
लड़कों की पहचान अब ‘कमाने वाले पुरुष’ से हटकर ‘सफल और भावनात्मक रूप से संतुलित इंसान’ की ओर जा रही है लेकिन ये बदलाव आसान नहीं है।
जो लड़के बेरोजगारी और अस्वीकार्यता का सामना कर रहे हैं, वे या तो आत्ममंथन में जाते हैं, या प्रतिरोध में जो कभी-कभी महिला विरोधी मानसिकता को जन्म देता है।
वहीं लड़कियाँ अब ‘करुणा की मूर्ति’ नहीं, निर्णय लेने वाली, आत्मनिर्भर इकाई बन रही हैं।
यहाँ पर लड़कों और लड़कियों के बीच एक भावनात्मक दूरी बन रही है जो अगर समझदारी से न सुलझाई गई, तो सामाजिक दरारें और गहरी हो सकती हैं।
5. समाधान: एक समावेशी, समझदार समाज की ओर
इस सामाजिक असंतुलन को केवल आलोचना से नहीं, समझदारी और सुधार से हल किया जा सकता है:
युवाओं के लिए स्किल ट्रेनिंग, रोजगार के मौके, और मानसिक स्वास्थ्य की सुविधाएँ बढ़ाई जाएँ।
लड़कों में संवेदनशीलता, आत्म-जागरूकता और लचीलेपन को बढ़ावा देना होगा।
लड़कियों की सफलता को प्रतिस्पर्धा नहीं, प्रेरणा की तरह देखने की सोच बनानी होगी।
विवाह को ‘स्थायी समझौता’ नहीं, ‘साझा यात्रा’ की तरह समझना होगा।
समाज बदल रहा है। लड़कियाँ अब ज़ंजीरों को तोड़ रही हैं, और नई उड़ान भर रही हैं। लेकिन इस उड़ान में अगर हम उन लड़कों को पीछे छोड़ देंगे जो अभी संघर्ष कर रहे हैं, तो समाज में एक गहरा भावनात्मक और मानसिक संकट जन्म लेगा।
समाधान यही है कि हम पुरुष और महिला, दोनों के बदलाव को साथ लेकर चलें संवेदना, समझ और समान अवसरों के साथ।
