एक औरत की उदासीनता (detachment) हमेशा दूरी या खामोशी से शुरू नहीं होती। कभी-कभी यह एक बातचीत के बीच में ही शुरू हो जाती है—एक वाक्य के बीच में—जब उसे एहसास होता है कि उसने यही बात पहले भी कही है। कई बार। अलग-अलग तरीकों से। कभी शांति से। फिर भावनाओं के साथ। कभी धीरे से। और कभी झुंझलाकर। और फिर भी... कुछ नहीं बदला।
उदासीनता तब शुरू होती है जब उसकी उम्मीदें सूखने लगती हैं। जब वह अब नाराज़ नहीं होती, बस थक जाती है। जब वह तुम्हारी आवाज़ के उतार-चढ़ाव पर ध्यान देना छोड़ देती है, तुम्हारे जवाबों की परवाह करना बंद कर देती है, उस सोच को छोड़ देती है कि शायद इस बार तुम उसे समझ जाओगे।
उसने अपने तरीके से गुहार लगाई थी। अपनी वफ़ादारी के ज़रिए। उस तरह से जिससे वह हर बार तुम्हें चुनती रही, भले ही उसे अनदेखा महसूस हुआ। उन रातों की उलझनों में, जब वह सोचती रही कि कैसे खुद को बेहतर तरीके से समझा सके, कैसे और नरमी से कहे, कैसे उस चीज़ को ठीक करे जो उसने तोड़ी ही नहीं थी।
लेकिन धीरे-धीरे वो ऊर्जा खत्म हो जाती है। क्योंकि कोई औरत खाली प्याले से लगातार नहीं दे सकती। और जब उसे एहसास होता है कि उसकी बातों का कोई असर नहीं हो रहा, तब वह बोलना बंद कर देती है।
यही वो पल होता है जब ज़्यादातर मर्दों को एहसास होता है। जब वो अब यह नहीं पूछती कि "कहाँ थे?" जब वो अब याद नहीं दिलाती कि उसे क्या चाहिए। जब वो अब वही बातचीत बार-बार नहीं दोहराती। वो ख़ामोशी? वो शांति नहीं है—वो उदासीनता है। वो एक औरत की ताक़त को धीरे-धीरे वापस लेने की आवाज़ है।
जब तक तुम यह सोचते हो कि वो "बदल गई है", तब तक वो सिर्फ इतना कर चुकी होती है कि अब खुद को उस इंसान के लिए नहीं थकाती, जिसने उसकी तकलीफों को अपनी सहजता बना लिया।
इसलिए अगर कोई औरत अब भी तुमसे बात कर रही है, अब भी अपनी ज़रूरतें ज़ाहिर कर रही है, अब भी खुद को दोहरा रही है—तो इसका मतलब है कि वो अब भी तुम पर भरोसा करती है। उसे खामोश मत होने दो। उसे हार मत मानने दो। क्योंकि जब वो एक बार उदासीन हो जाती है, तो वो आधी जा चुकी होती है।