कोई भी विवाह अटूट नहीं होता – जब मन, वचन और कर्म से दोनों सहभागी प्रयासरत हों।
विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि दो आत्माओं का आध्यात्मिक मिलन है। जैसे अग्नि के सात फेरे जीवन भर की सात कसमें हैं, वैसे ही हर दिन समर्पण, संयम और स्नेह का अभ्यास होना चाहिए।
प्यार और सम्मान – यह गृहस्थ आश्रम के दो स्तंभ हैं। मधुर वाणी बोलें, श्रवण को तप समझें, कभी क्रोध से न बोलें। जैसे योग में अभ्यास और वैराग्य दोनों आवश्यक हैं, वैसे ही विवाह में धैर्य और त्याग दोनों चाहिए।
गलती हो तो "क्षमायाचना" में विलंब न करें। जब दूसरा भूल करे तो "क्षमा" में देरी न करें। रिश्तों में मौन एक तपस्या हो सकता है, पर मौन को दंड न बनाएं। विवाह वहाँ फलता-फूलता है जहाँ दया, सहानुभूति और परस्पर सम्मान का वास हो।
प्रेम में संकल्प जरूरी है। जैसे तुलसी-दल बिना पूजा अधूरी है, वैसे ही आलिंगन, मुस्कान और स्नेह के बिना प्रेम अधूरा है। फिर से हाथ थामिए, साथ चलिए, संवाद करिए, हास्य में साझीदार बनिए। शारीरिक निकटता भी एक पवित्र संबंध का अंग है—जहाँ काम भी प्रेम का रूप होता है, वासना का नहीं।
संघर्ष आएँगे, पर युद्ध नहीं होने चाहिए। बातों से नहीं, भावों से हल करें। अपने रिश्ते की रक्षा करें—जैसे ऋषि अपनी साधना की करते हैं। ससुराल, बाहरी लोग या मोबाइल—कोई भी ध्यान भंग न कर पाए, यह सजगता आवश्यक है।
पर ध्यान रहे—क्षमा और सहनशीलता का अर्थ यह नहीं कि अन्याय सहा जाए। विवाह में भी कुछ "मर्यादाएँ" हैं—जैसे श्रीराम की मर्यादा, जैसे सत्य की लकीर। हिंसा, मानसिक शोषण या विश्वासघात जैसे कर्म क्षमा के योग्य नहीं। जहाँ सत्य और निष्ठा न हों, वहाँ प्रेम नहीं, केवल प्रतीति होती है।
विवाह एक साधना है—जहाँ दोनों साधक हों, वहाँ ईश्वर का वास होता है।
