“पुरुष को समझने के लिए, स्त्री को माँ बनना पड़ता है” 💯
शहर की चकाचौंध में रहने वाली आयुषी हमेशा सोचती थी कि पुरुषों की ज़िंदगी आसान होती है।वह कहती —“उन्हें रोने की आज़ादी नहीं चाहिए,उन्हें घर की ज़िम्मेदारियाँ नहीं संभालनी पड़तीं,ना बच्चे, ना रसोई, बस ऑफिस और आराम।”
वह मानती थी कि पुरुष सिर्फ अपने मन का करते हैं — उन्हें दर्द, दबाव या त्याग का मतलब नहीं पता।
उसके पति निखिल एक साधारण नौकरीपेशा इंसान थे। रोज़ सुबह 8 बजे ऑफिस और रात 9 बजे घर।आयुषी को लगता, “इतना तो कोई भी कर सकता है… इसमें थकने वाली क्या बात है?”
वह अक्सर निखिल से कहती —“थोड़ा टाइम तो हमें भी दो, हर वक्त काम-काम करते रहते हो। ज़रा परिवार के लिए भी सोचो।”निखिल बस मुस्कुरा देता, और कहता —“बस थोड़ा सब्र करो, कुछ महीनों में प्रमोशन मिलेगा… फिर सब ठीक हो जाएगा।”
पर वह “सब ठीक” कभी नहीं हुआ।एक दिन आयुषी माँ बनी।
पहली बार जब उसने अपने बच्चे को गोद में लिया, तो उसके भीतर कुछ टूट भी गया और कुछ बन भी गया।अब रातों की नींद उड़ गई थी, शरीर थक गया था, पर दिल में एक अजीब सी ताकत थी।हर 2 घंटे में बच्चे का रोना, दूध पिलाना, डायपर बदलना, और फिर भी चेहरे पर मुस्कान रखना — यही उसकी नई दिनचर्या बन गई थी।
निखिल ऑफिस से आता तो थका हुआ दिखता। पहले आयुषी कहती, “थोड़ा बच्चे को संभाल लो।”अब वह खुद कहती, “तुम बैठो, मैं संभाल लूंगी… तुम बहुत थक गए हो।”
कभी बच्चे की रातभर की रोने की आवाज़ में जब उसे नींद नहीं आती थी,तो उसे याद आता — “निखिल भी तो रोज़ बिना नींद के काम पर जाता है, सिर्फ हमारे लिए।”
एक दिन बच्चा बुखार से तड़प रहा था।निखिल ने पूरी रात गोद में लेकर उसे झुलाया।सुबह बिना सोए ऑफिस चला गया।तब आयुषी ने पहली बार महसूस किया —पुरुष थकते हैं, टूटते हैं, पर दिखाते नहीं।उनकी चुप्पी के पीछे भी बहुत सी अनकही बातें होती हैं।
धीरे-धीरे आयुषी के नज़रिए में बदलाव आया।अब जब निखिल ऑफिस से देर से आता, तो वह नाराज़ नहीं होती।वह उसके लिए चाय रख देती, और कहती —“तुम बैठो, मैं बच्चा देखती हूं।”
एक शाम, बच्चे को नींद नहीं आ रही थी।निखिल उसके पास बैठा था, और धीरे-धीरे लोरी गा रहा था।आयुषी चुपचाप उसे देखती रही।वह पल उसे भीतर तक छू गया।उसे लगा, “पुरुष जब पिता बनता है, तब उसका भी जन्म होता है।”
और उसी क्षण, उसके मन में गूंज उठा —
“पुरुष को समझने के लिए, स्त्री को माँ बनना पड़ता है।” 💯
क्योंकि अब वह समझ चुकी थी —पुरुष बाहर की दुनिया से लड़ता है, ताकि उसका परिवार अंदर सुरक्षित रह सके।वह अपने आँसू मुस्कान के पीछे छुपाता है, ताकि अपने लोगों को डर न लगे।वह हर दिन टूटकर भी मज़बूत बनता है, ताकि कोई उसे कमजोर न कहे।
आयुषी की सोच अब बदल चुकी थी।वह अब हर सुबह निखिल से कहती —“थोड़ा ध्यान रखना अपने ऊपर भी।”निखिल हंसकर पूछता — “इतना बदलाव कैसे आया?”आयुषी मुस्कुराती और कहती —“माँ बनने के बाद समझ आया कि प्यार सिर्फ सहेजना नहीं होता, निभाना भी होता है।”
सीख:एक स्त्री जब माँ बनती है, तब उसे एहसास होता है कि किसी का मौन भी एक त्याग होता है।तब उसे समझ आता है कि पुरुष की मज़बूती के पीछे कितनी बेबसी छिपी होती है।और तभी वह सच्चे अर्थों में समझ पाती है —“पुरुष को समझने के लिए, स्त्री को माँ बनना पड़ता है।” 💯
पुरुष को समझने के लिए,स्त्री को माँ बनना पड़ता है।💯
