वे छोटी-छोटी बातों में भी नफरत ढूंढ लेते हैं — जैसे किसी ज़ख़्मी शरीर को मक्खियाँ जल्दी घेर लेती हैं, ठीक वैसे ही ये लोग भी वहीं रुकते हैं जहाँ घाव हो, जहाँ कोई असुरक्षा हो, जहाँ कोई डर या चोट हो।
इन लोगों के लिए प्रेम, विश्वास, सहानुभूति जैसी भावनाएँ अजनबी होती हैं। उनके भीतर पहले से ही एक मानसिकता बन चुकी होती है — शक करने की, दूरी बनाने की, तोड़ने की। ये लोग दूसरों के शब्दों में अर्थ नहीं, बल्कि मंशा तलाशते हैं, और अक्सर उन्हें वही मिलता है जो वो पहले से सोच चुके होते हैं।
हमने यह देखा है — एक दोस्त जो देर से जवाब देता है, तो वह "बदल गया है"। एक रिश्तेदार जो एक बार फोन नहीं उठाता, "अब घमंडी हो गया है"। एक पति या पत्नी जो एक दिन चुप रहता है, "शायद अब प्यार नहीं रहा"। रिश्तों में शक नफ़रत का पहला बीज होता है।
एक बार का वाकया याद आता है — दो सहेलियाँ थीं, बहुत करीबी। एक ने दूसरी की बात को मज़ाक में थोड़ा टाल दिया। दूसरी को लगा कि वह अब उसकी इज़्ज़त नहीं करती। उस एक पल की असहमति ने सालों की दोस्ती में दूरी ला दी। हुआ कुछ नहीं था — सिर्फ एक छोटी सी बात, एक न समझी गई भावना, और उसमें पनपता गया वो मक्खी जैसा शक, जो अब दिल को कुतरने लगा।
नफ़रत की सबसे बड़ी त्रासदी यही है — ये चुपचाप पनपती है। इसे गुस्से की ज़रूरत नहीं होती, बस थोड़ी सी असुरक्षा, थोड़ा सा अकेलापन, थोड़ा सा 'क्यों नहीं?' और बहुत सा 'शायद वो अब ऐसा नहीं रहा…'।
कई बार लोग हमारे करीब आते हैं — रिश्ते बनते हैं, गहराई पनपती है। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनका प्यार ही डर से शुरू होता है — "कहीं मुझे छोड़ न दे", "कहीं मुझे धोखा न दे"। और जब प्यार डर से शुरू होता है, तो उसमें भरोसे की ज़मीन नहीं होती — वहां शक की दीवारें खड़ी होती हैं।
नफ़रत करने वाले लोगों की मानसिकता असल में खुद के भीतर से आती है। उनका अनुभव, उनका दुःख, उनका पिछला टूटन — ये सब मिलकर उन्हें ऐसा बना देते हैं। और सबसे दुखद बात ये है कि वे अक्सर उस व्यक्ति से नफ़रत करने लगते हैं जो उन्हें सबसे ज़्यादा प्यार करता है — क्योंकि वही उनके सबसे करीब होता है, वही उन्हें सच दिखाता है, और शायद वही उन्हें सबसे ज़्यादा डराता है।
रिश्ते खिलते हैं समझ से, और मुरझाते हैं अनुमान से।
इसलिए अगर कोई रिश्ते में चुप हो, तो समझिए कि वह थका हुआ हो सकता है — नाराज़ नहीं। अगर कोई बात अधूरी कहे, तो हो सकता है कि वह सब कह न पाया हो — छिपा नहीं रहा हो। शक मत कीजिए — पूछिए, सुनिए, महसूस कीजिए।
नफ़रत किसी भी रिश्ते की मौत होती है, और दुख की बात यह है कि वो कभी अचानक नहीं आती — वह धीमे-धीमे, रोज़, छोटी-छोटी बातों से जन्म लेती है। जैसे हर दिन न दिए गए पानी से एक पौधा सूखता है, वैसे ही हर दिन अनसुनी, अनदेखी, और गलत समझी गई भावनाएँ रिश्तों को मुरझा देती हैं।
इसीलिए — अगली बार जब दिल में शक आए, तो रुकिए। नफ़रत से पहले संवाद की कोशिश कीजिए। और याद रखिए — प्यार में संदेह नहीं, सहारा होता है।
