कुछ कहानियाँ किताबों में दर्ज होती हैं, और कुछ बस आँखों के पीछे दब जाती हैं — अनकही, अनसुनी, और अक्सर अनसमझी।
हर कोई दुख को महसूस नहीं कर सकता। दुख देखने के लिए आँखें नहीं, दिल चाहिए। वह दिल जो किसी और के मौन में भी उसकी पीड़ा पढ़ सके। लेकिन विडंबना यही है कि जो दूसरों को दुख देते हैं, वे अक्सर यह सोचते हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया। उनके लिए वो बस एक बात थी, एक क्षण का गुस्सा, एक हल्की टिप्पणी — लेकिन सामने वाले के लिए वह शब्द तीर बनकर दिल के आर-पार चला जाता है।
एक घायल आत्मा हर बार चिल्लाकर नहीं कहती कि उसे चोट लगी है। वह चुप रहकर मुस्कुराती है, ताकि दुनिया उसकी पीड़ा की गहराई को न भांप सके। क्योंकि उसे पता है कि समझने वाले कम हैं, और जज करने वाले ज़्यादा।
दिन के अंत में, वही इंसान जिसने दुख पहुँचाया — चैन से सोता है, हँसता है, ज़िंदगी को अपनी तरह से जीता है। और जिसे दुख पहुँचा, वह भी हँसता है — पर उस हँसी में एक खामोश सिसकी छुपी होती है। वह दिखाता है कि सब ठीक है, जबकि भीतर बहुत कुछ टूट चुका होता है।
दुख एक ऐसा अनुभव है जो अक्सर अनदेखा रह जाता है। दुनिया मुस्कुराहटों को पहचानती है, आँसुओं को नहीं। किसी की ख़ामोशी को 'मज़बूती' समझ लिया जाता है, जबकि वह अक्सर टूटी हुई आत्मा की आवाज़ होती है।
कितना कुछ है जो आँखों से ओझल है।
कितनी आवाज़ें हैं जो कभी सुनी नहीं जातीं।
कितने आंसू हैं जो गालों तक भी नहीं आते,
क्योंकि उन्हें भी बहने की इजाज़त नहीं होती।
शायद यही सबसे बड़ा दुख है — जब तुम्हें अपने ही दर्द को छुपाकर जीना पड़ता है, और दुनिया तुम्हारी मुस्कान को ही सच मानती है।
