अच्छा रहने की चाह में इंसान न जाने क्या-क्या सह लेता है।
नापसंद खाना खा लेता है, नापसंद लोगों के पास बैठ जाता है,
नापसंद बातों को भी चुपचाप सह लेता है—
चेहरे पर मुस्कान रखता है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
अंदर से वो धीरे-धीरे टूटता है, पर बाहर की दुनिया में सब कुछ सामान्य लगता है।
क्योंकि वो अच्छा रहना चाहता है, रिश्ते को बचाए रखना चाहता है।
खुद को खो देता है बस इस सोच में—
"अगर इसी तरह वो लोग साथ रहें..."
अपनी इच्छाओं को छुपा देता है,
अपने सपनों को मिट्टी में मिला देता है,
किसी का दिल न टूटे, इस डर से कई बार अपमान भी चुपचाप सह लेता है।
अच्छा रहने के नाम पर, दिन-ब-दिन
समझौता करते-करते एक दिन
इंसान खुद से ही अनजान हो जाता है।
