हर किसी की यात्रा अपनी होती है। कुछ लोग धीरे चलते हैं, कुछ तेज़, लेकिन गति मायने नहीं रखती — मायने रखता है कि आप अपने रास्ते पर हैं या नहीं। अपने ही समय पर, अपनी ही रफ़्तार से बढ़ना कोई कम उपलब्धि नहीं होती। जो फूल वसंत में खिलते हैं, वे सर्दियों को दोष नहीं देते। जीवन भी वैसा ही है — जहाँ सबका खिलना अलग मौसम में होता है।
इस यात्रा में हम जिन लोगों से जुड़ते हैं, वे केवल हमारी दुनिया में नहीं आते, वे हमारी ऊर्जा में प्रवेश करते हैं। खासकर जब दो लोग शारीरिक रूप से जुड़ते हैं, तो वह सिर्फ शरीर का संबंध नहीं होता। वह ऊर्जा, विचारों, और भावनात्मक प्रवाह का आदान-प्रदान होता है। यह जुड़ाव एक ऐसी प्रक्रिया है, जो भीतर तक असर करता है — कभी हमें सशक्त बनाता है, कभी थका देता है, और कभी हमें ऐसा महसूस कराता है मानो हमने खुद को खो दिया हो।
कुछ स्त्रियाँ ऐसी होती हैं, जिनके साथ समय बिताकर मन स्थिर हो जाता है। भीतर एक स्पष्टता आती है, जैसे जीवन की दिशा अचानक साफ हो गई हो। उनके स्पर्श में सुकून होता है, उनके साथ की ऊर्जा में एक प्रेरणा होती है। और फिर कुछ ऐसी भी होती हैं, जिनके बाद मन बेचैन रहता है। उलझनें बढ़ जाती हैं। एक थकावट होती है जो केवल शारीरिक नहीं, आत्मिक भी होती है। यह मत मानो कि ये सब कल्पना है। यह वास्तविक है। यह ऊर्जा है। यह उनकी भावनात्मक स्थिति, उनका दृष्टिकोण, उनकी मानसिकता — सब कुछ तुम्हारे भीतर स्थान बना लेता है।
एक मर्द अगर खुद को जानता है, तो वह यह समझता है कि हर संबंध कोई हल्का अनुभव नहीं होता। यह कोई खेल नहीं है। यह कोई गिनती बढ़ाने का साधन नहीं, बल्कि आत्मा की परख का माध्यम होता है। जो भी स्त्री तुम्हारे जीवन में आती है, वह तुम्हें या तो और ऊँचा उठाती है, या तुम्हारी आग को बुझा देती है।
अक्सर पुरुष, अपनी कमजोरी में, अपनी तन्हाई में, या बस अपनी वासना में ऐसे संबंधों में उलझ जाते हैं जो उन्हें भीतर से तोड़ते जाते हैं। वह बार-बार वहाँ जाते हैं जहाँ से लौटने पर वह खुद को थोड़ा और कम महसूस करते हैं। और फिर वे सोचते हैं कि यह तो नॉर्मल है, कि यह बस “मज़ा” है। मगर यह मज़ा धीरे-धीरे एक आदत बन जाता है, जो आत्मा को खोखला कर देता है।
सच्चा पुरुष वही होता है जो चयन करता है। जो सिर्फ सुंदरता नहीं देखता, बल्कि ऊर्जा को महसूस करता है। जो यह समझता है कि उसकी आत्मा कितनी कीमती है, और वह उसे किसी भी अनजानी शक्ति के हवाले नहीं कर सकता। वह स्त्री की आँखों में झांककर उसके भीतर की शांति या अशांति को देख सकता है। वह अपने पुरुषत्व की रक्षा करता है, जैसे कोई योद्धा अपने राज्य की करता है।
एक सशक्त स्त्री किसी पुरुष के स्वप्न को दिशा देती है। उसकी दृष्टि उसकी सोच को विस्तार देती है। लेकिन उसके लिए पहले पुरुष को स्वयं में स्थिर होना पड़ता है। अपने भीतर स्पष्टता लानी होती है। जब वह खुद को जानने लगता है, तभी वह जान पाता है कि कौन उसे उन्नत करेगा और कौन उसे गिरा देगा।
और फिर एक दिन वह समझ जाता है — कि हर चीज़ का जवाब बहस नहीं होता। हर बार प्रतिक्रिया देना ज़रूरी नहीं होता। अब वह दूर हो जाता है जहाँ उसका सम्मान नहीं होता। अब वह खुद को हर नाटक से अलग कर लेता है, शांति से, गरिमा से। क्योंकि अब उसे खुद से प्रेम हो गया है।
संबंध साधारण नहीं होते। वे या तो तुम्हें विस्तार देते हैं या तुम्हें सिकोड़ते हैं। और एक पुरुष को यह समझना ही होगा कि उसकी ऊर्जा, उसकी उपस्थिति, उसका समय — सब अमूल्य हैं। उन्हें यूं ही किसी को भी सौंपना, आत्मघात है।
यह एक खेल नहीं है। यह आत्म-नियंत्रण की परीक्षा है।
या तो तुम खुद को साधो — या फिर खो जाओ।
