काश मैं खुद से वैसे ही प्रेम कर पाती जैसे किसी और से करती हूँ। काश मैं खुद को उसी कोमलता से देख पाती जिस नज़र से मैं दूसरों को देखती हूँ। पर सच कहूँ तो, मुझे खुद को प्यार करना बहुत कठिन लगता है। कभी-कभी तो आईने में भी अपनी ही परछाई पर विश्वास नहीं होता। ऐसा लगता है, जैसे मैं एक ऐसी इंसान हूँ जो सिर्फ़ दूसरों को निराश करने के लिए बनी हो।
मैं चाहती हूँ कि मैं खुद की देखभाल कर सकूँ, अपने भीतर को थोड़ा दुलार सकूँ, पर जब भी कोशिश करती हूँ, मेरे भीतर की आवाज़ मुझे रोक देती है वो कहती है, “तुम इसके लायक नहीं हो।” और मैं मान लेती हूँ,
क्योंकि कहीं भीतर मुझे सचमुच ऐसा ही लगता है कि मैं असफल हूँ, मैं किसी चीज़ के क़ाबिल नहीं हूँ, मैं किसी के लिए भी, यहाँ तक कि अपने लिए भी, पर्याप्त नहीं हूँ।
मेरा एक हिस्सा दुखी रहता है इस बात से कि मैं खुद से इतनी नफ़रत क्यों करती हूँ। कभी-कभी कोशिश करती हूँ खुद को समझाने की,कहती हूँ — “तुम ख़ूबसूरत हो, तुम क़ीमती हो, तुम भी प्यार की हक़दार हो।” पर ये शब्द मेरे भीतर बहुत धीरे-धीरे उतरते हैं,जैसे किसी घायल आत्मा पर मरहम की पहली परत।
मुझे उम्मीद है, एक दिन मैं अपने भीतर की नफ़रत को भुला दूँगी,अपने घावों को शांति दूँगी और यह समझ जाऊँगी कि मैं भी योग्य हूँ प्यार की, सुकून की और अपने ही आलिंगन की। एक दिन मैं सच में खुद से प्यार करना सीख जाऊँगी वैसे ही, जैसे मैं हमेशा चाहती थी
कि कोई और मुझसे करे।
