इस दुनिया में कुछ महिलाएं ऐसी होती हैं जो किसी की नहीं सुनतीं। वे न समाज की मानती हैं, न परिवार की, न ही परंपराओं की बंदिशों को अपने पैरों की जंजीर बनने देती हैं। उन्हें अक्सर जिद्दी, अक्खड़, या घमंडी कह दिया जाता है। लेकिन सच ये है कि उनकी ये "न सुनने" की आदत हमेशा बगावती नहीं होती, बल्कि ये एक बहुत गहरी चुप्पी से पैदा हुई आवाज होती है वह आवाज जिसे वर्षों तक दबाया गया, कुचला गया, अनसुना किया गया।
जब कोई महिला दूसरों की नहीं सुनती, तो हो सकता है वह बस खुद की सुन रही हो। यह वो स्त्री है जिसने बहुत बार दूसरों की सलाहों को आज़माया, दूसरों के कहे रास्तों पर चली, लेकिन बार-बार खुद को कहीं खोती गई। अब जब वह कहती है कि "मैं अब किसी की नहीं सुनूंगी", तो यह एक घोषणा होती है कि अब वह अपने जीवन की सूत्रधार खुद है। यह ज़िद नहीं, आत्म-निर्भरता है। यह विरोध नहीं, आत्म-सम्मान है।
इस समाज में महिलाओ को हमेशा आज्ञाकारी, विनम्र और "सुनने वाली" होना सिखाया गया है। उन्हें यह नहीं सिखाया गया कि कभी-कभी खुद की आवाज़ भी सबसे जरूरी होती है। जब वह उस सिखाई हुई भूमिका से बाहर निकलती है, तो समाज को वह असहज लगती है। लेकिन क्या कभी हमने यह सोचा कि शायद वह इसलिए नहीं सुन रही क्योंकि वह थक चुकी है खुद को साबित करने से, सही साबित होने से, सबको खुश रखने से। शायद वह अब उस जगह पहुंच गई है जहां उसे किसी की मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं रही।
जो महिलाए किसी की नहीं सुनतीं, वे हमेशा बुरी नहीं होतीं। वे डरपोक भी नहीं होतीं। वे उस हिम्मत की जीती-जागती मिसाल होती हैं जो हर स्त्री के भीतर कहीं सोई होती है। वे सीख चुकी होती हैं कि सबसे पहले खुद को सुनना जरूरी है, क्योंकि जब तक वे अपनी नहीं सुनेंगी, तब तक दुनिया की कोई भी बात उनके भीतर नहीं टिकेगी।
हो सकता है उनके इस व्यवहार से रिश्तों में दरारें आ जाएं, कुछ दूरी बन जाए, और कई बार तो अकेलापन भी घेर ले। लेकिन यह अकेलापन भी शायद पहले से बेहतर होता है, जब वे भीड़ में होते हुए भी अकेली थीं, जब वे सुन तो रही थीं, पर खुद की आवाज़ कहीं गुम थी।
ऐसी महिलाएं हमें चौंकाती हैं, परेशान करती हैं, कई बार हमें खुद से सवाल करवाती हैं। और शायद यही उनकी सबसे बड़ी ताकत होती है कि वे हमारी उस दुनिया को हिला देती हैं जो हमेशा कहती रही कि एक महिला का सबसे बड़ा गुण है ‘सुनना’।
लेकिन क्या कोई महिला सिर्फ सुनने के लिए बनी है? शायद नहीं।
