गाँव के बीचोंबीच एक बड़ा सा घर था जिसमें रामेश्वर और उसकी पत्नी सावित्री रहते थे। रामेश्वर सीधा-साधा, मेहनती और ईमानदार आदमी था। दिन-रात मेहनत कर अपने घर को संभालता था। उसे बस इतना चाहिए था कि उसकी पत्नी उसके साथ खड़ी रहे, घर को सँभाले और दोनों मिलकर एक खुशहाल जीवन जिएँ।
लेकिन सावित्री का स्वभाव ज़रा अलग था। वह जल्दी-जल्दी दूसरों की बातों में आ जाती थी। पड़ोस की औरतें, मायके से आई सलाहें या फिर गाँव की चुगलखोर औरतें – जो भी कहे, सावित्री उस पर भरोसा कर लेती और वही काम करती।
एक बार की बात है, रामेश्वर ने सावित्री से कहा –“सुनो, इस बार की फ़सल अच्छी हुई है। थोड़ा पैसा बचाकर घर की मरम्मत करवा लेते हैं। छत से पानी टपकने लगा है।”
सावित्री ने पहले तो हामी भर दी, लेकिन अगले ही दिन उसकी सहेली कमला ने आकर कहा –“अरी, घर की मरम्मत छोड़, सोने की चूड़ियाँ बनवा ले। घर तो ऐसे ही चलता रहेगा, लेकिन गहने ही असली सहारा होते हैं। लोग भी ताने नहीं देंगे।”
सावित्री को यह बात भा गई। उसने पति की बात को नज़रअंदाज़ कर दिया और सारा पैसा गहनों में ख़र्च कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बरसात आई और घर से पानी टपक-टपक कर सारा सामान भीग गया।
रामेश्वर ने दुखी होकर कहा –“मैंने तुम्हें समझाया था, लेकिन तुम हमेशा दूसरों की बात मान लेती हो। इससे हमें ही नुकसान उठाना पड़ता है।”सावित्री ने उस समय बात टाल दी, लेकिन उसकी आदत वही रही।
कुछ दिन बाद रामेश्वर ने खेत में नई बैलगाड़ी लेने का सोचा। उसने सावित्री से कहा –“गाँव तक अनाज पहुँचाने में तकलीफ़ होती है, बैलगाड़ी आ जाएगी तो काम आसान हो जाएगा।”
लेकिन तभी उसके मायके से भाई आया और बोला –“बहन, तुझे क्या लेना-देना खेत-खलिहान से? पैसे हों तो हमें थोड़ी मदद दे दो, हमारे भी काम आ जाएंगे।”
सावित्री फिर बहक गई। उसने पति की बात न मानी और भाई को पैसे दे दिए। बैलगाड़ी का सपना अधूरा रह गया और रामेश्वर को पैदल ही अनाज ढोना पड़ा।
धीरे-धीरे घर की हालत बिगड़ने लगी। गहनों का सुख तो पलभर का था, लेकिन टूटा-फूटा घर, खेतों की कमी और उधारी का बोझ परिवार पर भारी पड़ गया। गाँव वाले भी ताने देने लगे –“रामेश्वर इतना मेहनती है, लेकिन बीवी है कि दूसरों की बातों पर ही चलती है।”
रामेश्वर अंदर ही अंदर टूटने लगा। उसे लगता कि उसकी पत्नी अगर उसका साथ देती तो वह अपनी मेहनत से घर को किसी महल की तरह सजा सकता था।
एक दिन हालात इतने बिगड़ गए कि सावित्री का वही भाई, जिसे उसने पैसे दिए थे, मुसीबत में पड़ गया और उसने उधार चुकाने से मना कर दिया। गहनों की खातिर उसने घर की मरम्मत नहीं करवाई थी, और अब वे गहने भी बेचने पड़े ताकि कर्ज़ चुकाया जा सके।
तब जाकर सावित्री को एहसास हुआ कि जो लोग उसे सलाह देते थे, वे मुश्किल वक़्त में साथ नहीं खड़े हुए। न मायका, न पड़ोस और न ही सहेलियाँ। आखिर में सिर्फ उसका पति ही था, जो हर ग़लती के बावजूद उसके साथ खड़ा रहा।
उस दिन रामेश्वर ने साफ कहा –“देखो सावित्री, औरत अगर अपने पति की बात न माने और दूसरों के कहने पर चले, तो वह न घर की रहती है, न घाट की। क्योंकि घर की नींव पति-पत्नी के विश्वास पर टिकती है, न कि दुनिया के कहने पर।”
सावित्री की आँखों से आँसू बह निकले। उसे समझ आया कि उसने बार-बार पति की अवहेलना कर अपने ही घर का नुक़सान किया।
उस दिन के बाद से उसने ठान लिया कि अब वह किसी और की बातों में नहीं आएगी। पति-पत्नी मिलकर ही घर को सँवारेंगे। और धीरे-धीरे मेहनत से उनका घर फिर से संभल गया।
शिक्षा
इस कहानी से यही सीख मिलती है कि पति-पत्नी का रिश्ता विश्वास पर चलता है। अगर औरत अपने पति की बात छोड़कर दूसरों की राय पर चलेगी, तो उसका नुकसान उसी के घर को होगा। पति-पत्नी का मिलकर निर्णय लेना ही घर को स्वर्ग बना सकता है।
