शादी के दो साल — हर दिन, हर रात सिर्फ़ मेरे पति का साथ…
हर सुबह उनकी बाहों में नींद से जागना और हर रात उनके सीने पर सिर रखकर सो जाना…
मैंने तो बस जीना सीख लिया था — एक मर्द की बाँहों में, उसकी सांसों में…
और फिर, एक दिन…
उन्होंने कहा, “कुछ दिन शहर जाना होगा… अकेली रह लोगी?”
मैंने मुस्कुरा कर कहा, “रह लूंगी… मगर जल्दी लौट आना... मेरी आदतें सिर्फ़ तुम्हारी हैं।”
और उनके जाने के कुछ घंटे बाद ही…
घर आया देवर – मुझसे 5 साल छोटा, भोला-सा चेहरा, मासूम सी आँखें, लेकिन शरीर अब कच्चे आम से पके फल में बदल चुका था।
मां जी ने कहा – “थोड़े दिन हमारे यहाँ रहेगा…”
मैंने सोचा – चलो अच्छा है, अकेलापन नहीं रहेगा।
शुरुआत में वो सामने के कमरे में सोता था…
फिर कभी पंखा खराब हुआ, कभी लाइट चली गई… और फिर वो मेरे कमरे में आ गया।
मैंने भी अकेलापन बाँटने के लिए कुछ ज़्यादा ही अपनापन दे दिया।
अब रातें दो लोगों की सांसों से भारी होती जा रही थीं।
हम दोनों एक ही कमरे में… एक ही बिस्तर पर…
पहले पीठ मोड़ कर सोते थे, अब कंधे छूने लगे थे।
एक रात… मैं नींद में करवट ले रही थी, और उसकी हथेली मेरी कमर से टकरा गई…
मैं चौंकी नहीं… रुकी भी नहीं…
उसका मासूम-सा चेहरा अब एक छिपे पुरुष की पहचान बनने लगा था।
मेरे भीतर की औरत जाग चुकी थी…
लेकिन मेरे भीतर की पत्नी भी अब तक मरी नहीं थी।
अगली सुबह, मैंने वही किया जो एक सम्मानित पत्नी और मर्यादित नारी को करना चाहिए —
मैंने दरवाज़ा बंद किया, दिल का भी और कमरे का भी…
और फ़ोन उठाकर सिर्फ़ एक बात कही —
"जल्दी लौट आइए… आपकी पत्नी, सिर्फ़ आपकी है… लेकिन वो भी इंसान है।"
🌺 कहानी का संदेश:
इच्छाएँ हर स्त्री में होती हैं — लेकिन उनका सम्मान तभी होता है जब वो संयम से निभाई जाएँ।
मर्यादा की दीवारें जब टूटती हैं, तो रिश्ते ताश के पत्तों से गिर जाते हैं…
और जब एक औरत उन्हें थाम लेती है, तो वही घर की असली नींव बन जाती है।