कहते हैं औरत को मजबूत बनो —
मुस्कराओ, सह लो, सब संभालो।
घर भी, काम भी, रिश्ते भी।
न बोलो ज़्यादा, न दिखाओ थकान,
पर भीतर से चट्टान बनो।
रोटी में नमक कम हो जाए तो ताना,
थोड़ी देर बैठ जाओ तो लांछन।
कितना कुछ माँगा जाता है एक औरत से,
और बदले में?
बस ये उम्मीद कि वह शिकायत न करे।
पर सच्चाई ये है —
औरत झुकती है तब ही,
जब वो अपनापन महसूस करे।
जब कोई उसका हाथ थाम कर कहे,
"तुम भी मायने रखती हो।"
एक माँ के दिल से सुनो—
उसने अपना पूरा जीवन दूसरों की ज़रूरतों में गुम कर दिया।
शादी के बाद अपना कमरा नहीं,
अपनी साँसों तक को साझा किया।
सास-ससुर से शुरू हुआ सफर,
फिर ननद, देवर, और अब बेटे की गृहस्थी तक।
उसने कभी चाहा था—
बस दो पल अकेले,
केवल अपने पति के साथ,
पर वो पल कभी नहीं आए।
क्योंकि उसका "चाहना"
कभी प्राथमिकता नहीं बना।
अब वो माँ अपने बेटे को देखती है,
जब वह अपनी पत्नी का हाथ थामे चलता है,
उसकी आँखों में भीगते हैं बीते पल।
उसे याद आता है—
वो भी कभी नई दुल्हन थी,
पर उसके साथ कोई न था।
वो माँ अब चाहती है—
जो अधूरा रहा उसका जीवन,
वह अधूरापन ना पहुँचे
उस नई बहू तक।
वो चुप रहती है,
क्योंकि अब शोर मचाने से क्या होगा?
माफ़ी मांगता है पति,
पर बीता हुआ वक्त लौटता नहीं।
जो आँसू तब छुपा लिए गए,
अब उनका हिसाब नहीं रखा जाता।
उसकी खामोशी में एक संकल्प है—
"जो मैं सह गई,
वह अब कोई और न सहे।"
वो कहती नहीं,
पर उसकी निगाहें कहती हैं—
"हर स्त्री को एक ऐसा घर चाहिए,
जहाँ वह खुद को खो न दे।
जहाँ उसकी आवाज़ को सिर्फ सुना ही नहीं,
समझा भी जाए।"
और उसकी बहू,
जो आज अपने नए जीवन की दहलीज़ पर खड़ी है,
उसे उस माँ की खामोशी में
मिलता है एक ऐसा आशीर्वाद—
जो लफ्ज़ों से नहीं,
बल्कि अनुभवों की राख में पके हुए प्यार से उपजा है।
यह एक माँ की अधूरी कहानी नहीं,
बल्कि एक नई कहानी का नींव है—
जहाँ दर्द की मिट्टी से
दुआओं का घर बनाया गया है।
