स्क्रीन की तरह, फीड की तरह। कोई पोस्ट देख कर आंखें नम होती हैं, और अगले ही पल किसी मज़ाक पर वही आंखें हँसी से भर उठती हैं। यह अस्थिरता कोई दोष नहीं रही, यह अब जीवन की सामान्य अवस्था बन चुकी है।
सोशल मीडिया पर चलने वाली यह दुनिया बहुत तेज़ है। इतनी तेज़ कि सोचने का समय नहीं देती, सिर्फ़ प्रतिक्रिया माँगती है। यहाँ हर किसी को कुछ महसूस करना है, लेकिन जल्दी और लगातार—इतनी जल्दी कि वह भावनाओं को जी नहीं पाता, बस छू कर आगे बढ़ जाता है।
इन्हीं अस्थिर भावनाओं की बुनियाद पर खड़े होते हैं कुछ लोग—जो दूसरों की भावनाओं का रास्ता जानते हैं, जिनका दिमाग़ तेज़ है, जिनकी कल्पनाशीलता आकर्षक है, और जिनका चेहरा हमेशा कैमरे के लिए तैयार रहता है। वे जानते हैं कि क्या कहना है, कैसे कहना है, कब रुकना है। उनके शब्दों में कोई जादू नहीं, बस गहराई से चुनी गई चालें होती हैं—जो सामने वाले को महसूस करवा दें कि वही सबसे ज़रूरी है, जबकि असल में वह एक भीड़ का हिस्सा भर होता है।
मन अब खुद का नहीं रहता। वह किसी और की कहानी, किसी और की पसंद, किसी और के कहे में ढलने लगता है। यह ढलाव धीरे-धीरे इतना सहज हो जाता है कि फर्क भी महसूस नहीं होता। लोग अब अपनी बात कम कहते हैं, और दूसरों की बातें दोहराते ज़्यादा हैं।
जो लोग इन इन्फ्लुएंसरों के संपर्क में आते हैं, वे कई बार खुद को विशेष समझ बैठते हैं—मानो कोई उन्हें देख रहा हो, समझ रहा हो। लेकिन वह देखना असली नहीं होता, वह एक ज़रूरत होती है—लाइक की, व्यूज़ की, किसी प्रोजेक्ट की, या एक नाम बनाने की।
कई रिश्ते ऐसे ही बनते हैं, लेकिन वह रिश्ता नहीं होता—वह एक स्थिति होती है, जहाँ आप किसी के प्रभाव में जीने लगते हैं, सोचने लगते हैं, और कई बार अपने निर्णय भी उसी के मुताबिक़ लेने लगते हैं। तब न केवल सोच पर असर पड़ता है, बल्कि व्यक्ति अपने आत्मबोध से भी दूर हो जाता है।
इन चेहरों को पहचानना मुश्किल होता है, क्योंकि वे चमकते हैं, मुस्कुराते हैं, प्रेरित करते हैं। लेकिन भीतर से वे एक अकेलेपन की चतुर व्याख्या होते हैं, जो दूसरों से ध्यान, प्रेम और मान्यता खींच कर खुद को पूरा करने की कोशिश करते हैं।
इनके लिए हर व्यक्ति एक ‘फ़ॉलोअर’ है—एक संख्या, एक प्रतिक्रिया, एक संभावना। और जब वह संभावना पूरी हो जाती है, तो अगला नाम, अगली कहानी, अगला चेहरा।
जो पीछे छूट जाता है, वह अक्सर खुद से सवाल करता रह जाता है—कहाँ गलती हुई, क्यों कुछ समझ नहीं आया, क्यों भावनाएँ इतनी जल्दी ग़ायब हो गईं।
क्योंकि वह व्यक्ति खुद नहीं था, वह किसी और के प्रभाव में बना हुआ एक अस्थायी संस्करण था।
और सबसे दुखद बात यही होती है—जब इंसान खुद का नहीं रह जाता।
