यकीन नहीं होता कि एक अनपढ़ सी औरत ने पति की डेथ के बाद कैसे घर, बच्चे सबकुछ इतनी अच्छी तरह से संभाल लिया था। वो कोई और नहीं मेरी मां थी। जब मैं सात साल की थी तब मेरे पिता गुजर गए थे। उसके बाद सबकुछ बिखर गया था लेकिन मां ने बच्चों को पालना, पढ़ाना, खाना पकाना, खिलाना सब अकेले दम पर किया। मां के साये में जीने में न जाने कैसा सुकून था, कौन सी बेफिक्री थी, जो आज तक दोबारा नसीब नहीं हुई।
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सच कहूं तो पिता की कमी कभी महसूस नहीं हुई। मां ने ही सब भाई-बहनों की शादी की। सब अपने-अपने घर के हो गए। पूरा परिवार फिर बिखरने लगा। सभी भाई अलग-अलग रहने लगे। मैं एक भैया और भाभी के पास रहने लगी, उन्हीं के साथ मां भी रहती थी। एक दिन अचानक मां को बुखार आया। मुझे लगा कि सब ठीक हो जाएगा। लेकिन टायफायड ने मां के लीवर को इतना खराब कर दिया था कि वो कुछ खा-पी नहीं पा रही थी।
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अस्पताल में इलाज चल रहा था। मैं उनके पास गई तो उन्होंने मुझे धीमी आवाज में कहा कि पेट में आखिरी रोटी तुम्हारे हाथ की खाई थी। पिछले चार दिन से पेट में कुछ नहीं गया है। मां को कितनी तकलीफ थी, इसका अंदाजा हमलोग लगा नहीं पाए थे। कुछ ऐसा था जो उनको अंदर ही अंदर खा गया था। वो अस्पताल में ही हम सबको छोड़कर चली गई। मेरे ऊपर तो मानो पहाड़ टूट पड़ा था। मैं यतीम हो चुकी थी।
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उनके जाने के बाद दिन रात गम में गुजरने लगे। तभी मुझे पता लगा कि यतीमी क्या होती है। बाहर निकलने के लिए भी अब किसी के साथ का मोहताज होना पड़ता है। मां को याद करते-करते नींद भी बहुत मुश्किल से आती है और आ भी गई तो सुबह जल्दी आंख खुल जाती है। कितना सुकून था मां की पनाह में। सच कहूं तो मैं मां की मौत को कभी कबूल नहीं कर पाई। यूं लगता है कि बहुत बड़ा नुकसान हो गया है जिसकी भरपाई नामुमकिन है।
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मां हम सबकी कितनी परवाह करती थी। खुद नहीं खाती थी, अपने बच्चों को खिला देती थी। खुद वो अपने लिए कपड़े नहीं लेती थी, बच्चों के लिए खरीदती थी। ये सब बातें लिखते हुए मैं रो रही हूं। मेरा तो सबकुछ खत्म हो गया। एक साल से ज्यादा हो चुका है मां को गए हुए मगर आज भी उनके साथ बिताए पल मेरी आंखों के सामने रहते हैं। सोचा नहीं था कि इतने अकेले हो जाएंगे। मां की मौत के साथ ही मेरी बेपरवाह सी जिंदगी की भी मौत हो गई। आदत थी मुझे सुबह उनके हाथ की चाय पीने की, जो अब कभी नसीब नहीं होगी।
मां हम सबकी कितनी परवाह करती थी।
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